“वर्तमान कोरोना-विषाणु फेफड़ों में पहुँचकर गम्भीर समस्या कैसे उत्पन्न करता, इसे समझने के लिए पहले यह समझिए कि फेफड़ों की सामान्य कार्य-विधि क्या है।”
लेखक: डा स्कन्द शुक्ल, लखनऊ/जाने माने डाक्टर
“फेफड़ों से हम साँस लेते हैं।”
“यह तो आपने मोटी-मोटी बात कही। पर किस तरह से फेफड़ों द्वारा हम साँस का इस्तेमाल करते हैं ? साँस ले लेने से क्या होता है ? साँस का महत्त्व क्या है ?
“चलिए , फिर विस्तार से इसपर चर्चा करिए।”
“ठीक है। साँस लेने का अर्थ वायुमण्डल में मौजूद हवा को भीतर खींचकर फेफड़े-नामक अंगों में भरना। यह काम आप सायास भी कर सकते हैं , किन्तु अधिकांश समय में हमारा साँस लेना अनायास चलता रहता है। आप कभी सोच-विचार कर साँस ले लें , ऐसा हो सकता है किन्तु सोच-विचार कर साँस कब और कितनी बार ली जाती है ? जागते समय और सोते समय भी हमारे मस्तिष्क में ऐसी व्यवस्था है कि वह अपने-आप अनैच्छिक ढंग से श्वसन को जारी रख सकता है।”
“यह तो ठीक बात हुई।”
“जी। अब यह हवा जो भीतर ली जा रही है , इसमें 21 प्रतिशत-के-लगभग ऑक्सीजन मौजूद है। यह ऑक्सीजन हमारे शरीर की तमाम रासायनिक क्रियाओं को संचालित करने के लिए ज़रूरी है। वस्तुतः ऑक्सीजन के बिना हमारी जैविक रासायनिकी चल नहीं सकती ; हम ढेरों अन्य जानवरों -कीटाणुओं की तरह ऑक्सीजनजीवी जन्तु हैं। यह ऑक्सीजन-युक्त हवा स्वस्थ फेफड़ों की सूक्ष्म अंगूरनुमा संरचनाओं में पहुँचती है , जिन्हें एल्वियोलाई कहते हैं। ( एकवचन एल्वियोलस , बहुवचन एल्वियोलाई )। इन एल्वियोलाई की दीवारें अत्यधिक पतली होती हैं और इन एल्वियोलाई-दीवारों से चिपका हुआ सूक्ष्म रक्तवाहिनियों का एक जाल होता है , जिन्हें कैपिलरी कहा जाता है। यानी अति-नन्हे अत्यधिक पतली दीवार वाले ढेर सारे अंगूरों के चारों और लिपटी ख़ून ले जा रही अतिसूक्ष्म रक्तवाहिनियाँ — यही फेफड़ों के भीतर की मूल संरचना है। इन एल्वियोलाई में पहुँची ऑक्सीजन-युक्त हवा कैपिलरियों में मौजूद लाल रक्त-कोशिकाओं पहुँच जाती है और कार्बन-डायऑक्साइड ख़ून से एल्वियोलाई में आ जाती है। यानी एल्वियोलाई-कैपिलरियों की दीवारों के आर-पार एक गैस का शरीर में जाना और दूसरी का निकलना। फिर यह एल्वियोलाई में आ चुकी कारण डायऑक्साइड साँस बाहर छोड़ते समय हम निकाल दिया करते हैं। भीतर रक्त-वाहिनियों में मौजूद लाल रक्त-कोशिकाओं में पहुँची ऑक्सीजन पहले हृदय में रक्त-धारा-प्रवाह के साथ पहुँचती है और फिर वहाँ से हृदय इसे पम्प करते हुए पूरे शरीर में पहुँचाता है।”
“एल्वियोलाई और कैपिलरियों की दीवारें इतनी पतली क्यों हैं ?”
“कुदरत ने उन्हें इस तरह इसलिए बनाया है , ताकि गैसों का आदान-प्रदान आसानी से हो सके। मोटी दीवारों के आरपार गैसों का आदान-प्रदान मुश्किल होता है , पतली दीवारों के आरपार आसानी से।”
“तो कोरोना-विषाणु किस तरह से फेफड़ों को हानि पहुँचाता है ?”
“कोरोना-विषाणु के संक्रमण के बाद एल्वियोलाई और कैपिलरियों की दीवारें क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। क्षति के कारण एकत्रित कोशिकीय मलबा वहीं जमा हो जाता है। साथ ही इन घायल कैपिलरियों से ख़ूब सारा प्लाज़्मा नामक तरल एल्वियोलाई में भरने लगता है। यानी जो सूक्ष्म और पतली दीवारें पहले स्वस्थ थीं और आसानी से ऑक्सीजन-कार्बन डायऑक्साइड का विनिमय कर रही थीं , वे अब मोटी हैं , क्षतिग्रस्त हैं और उनके भीतर अब हवा नहीं तरल भरा हुआ है। अब व्यक्ति चाहे भी तो साँस कैसे ले ?”
“यानी जितनी मोटी एल्वियोलस की दीवार और जितनी कैपिलरी को क्षति , उतना ऑक्सीजन भीतर लेना मुश्किल ?”
“जी , बिलकुल। अब इस स्थिति में मरीज़ की साँस फूलने लगती है। ज्यों-ज्यों फेफड़ों के भीतर यह सार्स -सीओवी 2 के कारण क्षति बढ़ती जाती है , त्यों-त्यों व्यक्ति की स्थिति गम्भीर होती जाती है। फिर कोरोना-संक्रमण की इस स्थिति के साथ अन्य जीवाणु भी उसका साथ निभा सकते हैं।”
“यानी इस विषाणु के साथ अन्य जीवाणु भी !”
“जी। प्राथमिक क्षति कोरोना-विषाणु से और फिर द्वितीयक क्षति किसी अन्य जीवाणु के द्वारा। फेफड़ों में होने वाली ऑक्सीजन-कार्बन डायऑक्साइड की अदला-बदली को मुश्किल करके ही यह विषाणु दुनिया-भर के मनुष्यों को मुश्किल में डाले हुए है।
( इस लेख का ध्येय आम जन को पल्मोनरी गैस-एक्सचेंज और कोविड-19 न्यूमोनिया व फिर एआरडीएस ( एक्यूट रेस्पिरेटरी डिस्ट्रेस सिण्ड्रोम ) को सरल भाषा में समझाना है। )