अमेरिका से जारी झगड़े के बीच अफ्रीका क्यों पहुंचे चीनी राष्ट्रपति

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तेज रफ्तार से तरक्की करना है तो चालाक चीन से सीखिए

लेखक: राय तपन भारती, संपादक, khabar-india.com न्यूज वेबसाइट

मई 1998 में तत्कालीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार के रक्षामंत्री की हैसियत से समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडीस ने जब सामरिक दृष्टि से चीन को भारत का दुश्मन नंबर-1 करार दिया तो उनके ही कई साथी मंत्रियों ने उनके इस बयान पर नाक-भौं सिकोड़ी ली थीं। आज की तरह उस समय भी कांग्रेस विपक्ष में थी और उसे ही नहीं बल्कि एनडीए की नेतृत्वकारी भारतीय जनता पार्टी को भी और यहां तक कि उसके पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को भी जार्ज का यह बयान नागवार गुजरा था। वामपंथी दलों को तो स्वाभाविक रूप से जार्ज की यह साफगोई नहीं सुहा सकती थी, सो नहीं सुहाई थी।
पर जार्ज फर्नांडीस की बात आज सच साबित हो रही है। चीन तेजी से हर मोर्चे पर बढता जा रहा है और उसकी तरक्की भारत के लिए मुसीबत बनती जा रही है। शी जिनपिंग मार्च में दोबारा चीन के राष्ट्रपति बने और इस पद पर बने रहने की समयसीमा हटा लेने के बाद शी जिनपिंग अपनी पहली विदेश यात्रा पर निकले हैं जिसमें कई देशों की यात्राओं का कार्यक्रम शामिल है। इस यात्रा के पहले दौर में वह तीन दिन के लिए संयुक्त अरब अमीरात में थे और वहां से अब अफ्रीका के लिये रवाना हुए हैं। यह 29 साल के बाद चीनी राष्ट्रपति की फिर संयुक्त अरब अमीरात की यात्रा है, जो चीन-संयुक्त अरब अमीरात संबंध मजबूत करने के लिए महत्वपूर्ण प्रभाव डालेगी।
 
विश्व की शीर्ष दो अर्थव्यवस्थाओं के बीच छिड़े व्यापार युद्ध के समय में यह यात्रा इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि चीन अफ्रीका का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार होने के साथ ही अफ्रीकी देशों को हथियार बेचने के मामले में भी अमेरिका को पीछे छोड़ चुका है। चीन ने इसी महीने चीन-अफ्रीका रक्षा सम्मेलन के दौरान कई अफ्रीकी सैन्य अधिकारियों की मेजबानी की। चीन ने पिछले ही साल अफ्रीका के जिबुती में अपना पहला सैन्य अड्डा शुरू किया है। इसी महीने उसने जिबुती में अफ्रीका के सबसे बड़े मुक्त व्यापार क्षेत्र की भी शुरुआत की है।
 
शी जिनपिंग का यह दौरा चीन की ‘ बेल्ट एंड रोड ’ मुहिम को लेकर भी महत्वपूर्ण है। चीन इसके जरिये अफ्रीका , यूरोप और एशिया के अन्य हिस्सों को बंदरगाहों, रेल लाइनों , विद्युत संयंत्रों तथा आर्थिक क्षेत्रों के जाल के जरिये जोड़ना चाहता है। इसके तहत बन रही भारी-भरकम परियोजनाओं से जहां भागीदार देशों की आधारभूत संरचना जरूरतें पूरी हो रही हैं तथा उनकी आर्थिक प्रगति को गति मिल रही है वहीं दूसरी ओर इन देशों के चीन के ऋणपाश में फंसने का जोखिम भी बढ़ रहा है।
 
जॉन्स हॉपकिंस यूनिवर्सिटी के चाइना अफ्रीका रिसर्च इनिशिएटिव के अनुसार, चीन की सरकार, अफ्रीका के बैंकों और ठेकेदारों ने 2000 से 2015 के बीच अफ्रीकी देशों को 94 अरब डॉलर से अधिक का कर्ज दिया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के वेंजी चेन तथा रोजर नॉर्ड की रिपोर्ट कहती है कि सहारा क्षेत्र के अफ्रीकी देशों का सार्वजनिक कर्ज 2013 में उनके सकल घरेलू उत्पाद का 34 प्रतिशत था जो बढ़कर 2017 में 53 प्रतिशत पर पहुंच गया है। सेनेगल की पहली यात्रा पर चिनफिंग वहां के राष्ट्रपति मैकी सॉल से मुलाकात करेंगे। इसके बाद वह रवांडा जाएंगे। चिनफिंग दक्षिणअफ्रीका में ब्रिक्स सम्मेलन में भाग लेने के बाद इस यात्रा के अंतिम चरण में मॉरीशस पहुंचेंगे।
मार्च में पुन: राष्ट्रपति नियुक्त होने और इस अपने लिए इस पद पर बने रहने की समय हटा लिए जाने के बाद जिनपिंग पहली बार विदेश यात्रा के लिए निकले हैं जिसमें कई देशों की यात्राओं का कार्यक्रम शामिल है। इस यात्रा के पहले दौर में वह तीन दिन के लिए संयुक्त अरब अमीरात में थे और वहां से अफ्रीका के लिये रवाना हुए हैं। दूसरी सर्वाधिक आबादी वाले महाद्वीप अफ्रीका की इस यात्रा में चिनफिंग सेनेगल के अलावा रवांडा , दक्षिण अफ्रीका और मॉरीशस जाएंगे।
 
विश्व की शीर्ष दो अर्थव्यवस्थाओं के बीच छिड़े व्यापार युद्ध के समय में यह यात्रा इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि चीन अफ्रीका का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार होने के साथ ही अफ्रीकी देशों को हथियार बेचने के मामले में भी अमेरिका को पीछे छोड़ चुका है। चीन ने इसी महीने चाइना – अफ्रीका रक्षा सम्मेलन के दौरान कई अफ्रीकी सैन्य अधिकारियों की मेजबानी की है। चीन ने पिछले ही साल अफ्रीका के जिबुती में अपना पहला सैन्य अड्डा शुरू किया है। इसी महीने उसने जिबुती में अफ्रीका के सबसे बड़े मुक्त व्यापार क्षेत्र की भी शुरुआत की है।
 
चिनफिंग का यह दौरा चीन की ‘ बेल्ट एंड रोड ’ मुहिम को लेकर भी महत्वपूर्ण है। चीन इसके जरिये अफ्रीका , यूरोप और एशिया के अन्य हिस्सों को बंदरगाहों , रेल लाइनों , विद्युत संयंत्रों तथा आर्थिक क्षेत्रों के जाल के जरिये जोड़ना चाहता है। इसके तहत बन रही भारी – भरकम परियोजनाओं से जहां भागीदार देशों की आधारभूत संरचना जरूरतें पूरी हो रही हैं तथा उनकी आर्थिक प्रगति को गति मिल रही है वहीं दूसरी ओर इन देशों के चीन के ऋणपाश में फंसने का जोखिम भी बढ़ रहा है।

(आपकी ओर से नियमित मांग रही तो यह न्यूज वेबसाइट चीन पर खास खबरें प्रकाशित करती रहेंगी)

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