मृत्यु तो एक दिन आनी ही है, यह सुनिश्चित है। हम इस भूकंप में मरें या किसी और भूकंप में, या किसी और दुर्घटना या बीमारी – हम एक न एक दिन मरेंगे। हमें उससे पहले अपने भीतर वह केंद्र-बिंदु खोज लेना चाहिए, जहां कोई भय नहीं है। वहां आत्मा का, चैतन्य का अमरत्व है।’ जेन सद्गुरु ने अपने शिष्यों को ऐसी सीख दी है कि वे हमेशा के लिए मृत्यु के भय से मुक्त हो सकें। ऐसी सिखावन सभी सद्गुरुओं की है। लेकिन इस सिखावन को बौद्धिक सिखावन नहीं बनाया जा सकता, इसे निरंतर ध्यान के माध्यम से आत्मबोध बनाना, अपनी अनुभूति बनाना बहुत जरूरी है। यह अभयपूर्वक मृत्यु का वरण करने की कला है, लेकिन इसे वही व्यक्ति कर सकता है, जिसे बोधपूर्वक जीने की कला आती है। इस कला को हम कल पर नहीं टाल सकते। कल पर टालते रहे तो फिर हम काल से नहीं बच सकते- कभी नहीं बच सकेंगे। जीवन तो इसी क्षण है- अभी और यहीं। और मृत्यु कभी भी हो सकती है; वह किसी पूर्व-सूचना के नहीं आती। वह अतिथि की भांति है, उसकी कोई तिथि नहीं, या सब तिथियां उसी की हैं। वह जब आती है तो हमें उसे स्वीकार करना पड़ता है। अच्छा होगा कि हम ऐसा जीवन जिएं, जो उसके भय से मुक्त हो; बल्कि जब वह आए तो हम उसका स्वागत कर पाएं। जैसा कि संत कबीर कहते हैं:
‘जिस मरने से जग डरे, मेरो मन आनंद।
कब मारिहौं कब भेंटिहौं, पूरन परमानंद।।’
संत कबीर कोई बौद्धिक बात अथवा कविता की बात नहीं कर रहे हैं; यह अनुभूति की घोषणा है। संतों का, रहस्यदर्शियों का बौद्धिकता, पांडित्य और विद्वता से कोई लेना-देना नहीं होता, वे तो खरी-खरी अनुभव की बात करते हैं। जैसा कि उन्हें संबोधित करते हुए कबीर कहते हैं: ‘लिखा-लिखी की है नहीं, देखा-देखी बात।’ यह दृष्टि की बात है, अंतर्दृष्टि की बात है।
ऐसी कुछ उद्घोषणा रहस्यदर्शी संत गोरख ने की है:
‘मरौ हे जोगी मरौ, मरो मरण है मीठा।
ऐसी मरणी मरो, जिस मरणी मर गोरख दीठा।।’
गोरख ने ध्यान के माध्यम से अपने भीतर अपने अहं की मृत्यु को उपलब्ध किया, अमृत के दर्शन किए। अहंकार की मृत्यु बहुत मीठी अनुभूति है, क्योंकि अहंकार सभी के जीवन को विषाक्त कर देता है। अहंकार एक कारागृह है, जिसमें हम बहुत सिमट कर रह जाते हैं, संकुचित हो जाते हैं, हमारी दृष्टि संकीर्ण हो जाती है। इसकी यह स्थिति समझ कर अगर हम इसका अतिक्रमण कर लें तो असीम आकाश में हमारा प्रवेश होता है। जो अनुभूति हमें अपने भीतर होती है, उसी के दर्शन हम सब में कर लेते हैं। फिर कोई भेद और द्वैत नहीं रहता।
हमें विराट के दर्शन होते हैं। बूंद सागर में समा जाती है। अपनी पृथकता और अपनी क्षुद्रता से मुक्त हो जाती है। अहंकार अंधकार है, मृत्यु का द्वार है। भगवान बुद्ध कहते हैं, ‘अंधकार में डूबे हो और दीपक की खोज नहीं करते।’ इस सूत्र पर प्रकाश डालते हुए ओशो कहते हैं कि जीवन का बस इतना ही उपयोग करो कि जीते-जी तुम दीया जला लो। ध्यान का दीया जला लो। तुमने पद, धन, यश-कीर्ति इन सबकी चेष्टाएं की, बस एक ध्यान के दीये को जलाने की चेष्टा नहीं की, वही काम आएगा। मौत केवल उसी दीये को नहीं बुझा पाती।