“सबको चाहिए कोई अपना-सा, एक प्रिय जीवनसाथी, फिर विवाह में देरी आखिर क्यूं ?”

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अनामिका राजे ,कोलकाता

“विवाह में देरी के कारणों के विषय पर पूर्व से चली आ रही चर्चा पर मेरे कुछ भाव साझा कर रही हूं, उचित लगे तो आशीष और अनुचित लगे तो क्षमा प्रार्थी। ” 

अनामिका राजे ,कोलकाता

कोई भी सामाजिक विषय संवेदनशील होता ही है और उस पर कोई भी एक विचार पत्थर की लकीर की तरह थोपा नहीं जा सकता पर फिर भी मैं अपने कुछ व्यक्तिगत विचार रखने का साहस कर रही हूं, आशा है सभी स्नेही स्वजन मेरे भावों के पीछे सकारात्मकता ढूंढ पाएंगे और उसी सकारात्मकता के साथ स्वीकार करेंगे।
परिवार सर्वोपरि: जॉब किसी भी लड़की का व्यक्तिगत निर्णय है पर लड़की में परिवार को सर्वोपरि रखने के संस्कार होने ही चाहिए और माता-पिता भी प्रयास करें कि विवाह के बाद कुछ सालों तक बिना मायके के हस्तक्षेप के लड़की नए परिवेश में घुल मिलकर उसको पूरी तरह से अपना ले। अब इसका अर्थ यह भी नहीं है कि अपनी बेटी के हाल की जानकारी ना रखा जाए; पर उसको यह याद रखते हुए सलाह देना चाहिए कि नया जीवन सभी को फूलों की राह पर नहीं मिलता।
हम वास्तविकता से दूर क्यों : लड़की यदि नौकरी नहीं भी करती है तो भी एक पुरुष से अधिक एक स्त्री का शरीर खर्च होता है। 60 वर्ष की आयु तक भी पुरुष युवा और शक्तिशाली बने रह सकते हैं पर महिला का शरीर घर गृहस्थी के काम और बच्चों के जन्म परवरिश आदि में तेजी से गिरता है। तो भी यह सोचना गलत है की बेटी अतिरिक्त भार उठाकर धन उपार्जन का प्रयास ना करे, रानी बनकर राज करें ; हम वास्तविकता से दूर क्यों रहते हैं रानी बनकर राज करने वाली सभी शाही महिलाएं रोग का शिकार होती थीं, वहीं जिम्मेदारी से मेहनत करने वाली औरतें अधिक स्वस्थ ,शरीर और विशेषकर मन से रह पाती हैं।

शादी के बाद भी सपोर्ट बनाए रखें: जॉब करना तो सभी के लिए जरूरी है, अपने आत्म सम्मान और आत्मनिर्भरता के लिए , साथ ही परिवार और समाज की आर्थिक समृद्धि के लिए, एक आर्थिक रूप से सशक्त महिला किसी का सहारा बनने की क्षमता रखती है। अभिभावक अपनी बच्चियों का साहस बढ़ाएं, उनकी क्षमता के अनुसार छोटा बड़ा कुछ भी करने के योग्य बनाएं और शादी के बाद भी सपोर्ट बनाए रखें। जीवन धान की बाली सा लचीला होना चाहिए, बेंत सा कठोर नहीं और हमारे निर्णय भी देशकाल परिस्थितियों के अनुसार विचारशील  उन्नतिशील और परिवर्तनशील होने चाहिए।

दहेज बंद नहीं होगा: दहेज लेना देना हमेशा से होता आया है, और होता रहेगा, इसका देर से शादी से बहुत मतलब नहीं जो कि इस चर्चा का मुख्य मुद्दा था जो हमेशा की तरह भटकता है। समर्थ माता पिता अपने धन का प्रयोग करके योग्य वर को अपने प्रभाव में लेने में  प्रायः सफल हो ही जाते हैं; और इसका नुकसान उन गरीब माता-पिता को उठाना पड़ता है जो काबिल बेटी के लिए कम बजट में लड़का खोज रहे होते हैं।ऐसे कारणों से बेहतरीन जोड़ियां नहीं बन पातीं, लेकिन समाज का हमेशा से स्वभाव रहा है कि लड़की कैसी भी आए, एडजस्ट तो हो ही जाएगा धन आना ज्यादा महत्वपूर्ण है।
समर्थ माता-पिता भी यदि अपनी बेटी के गरिमा को सम्मान देते हुए दामाद को पैसे से खरीदने की जगह अपनी बेटी और दामाद के भविष्य के लिए पैसे फिक्स कर दें, कम खर्च और शोबाजी की शादियां की जाएं , कर्ज उधार लेने की आवश्यकता ना पड़े,और भविष्य का सहारा मानकर कन्या धन दिया जाए तो वह पिता और बेटी दोनों का अधिकार भी है, सम्माननीय भी है।
विवाह के बाद पति को कुछ देना भी जब उसी के पैसे से पड़ता है तो बड़ा अजीब सा लगता है। 
गरीब कम पढ़ी लिखी लड़की को भी विवाह का हक है , सामान्य काम से  बेटियों में आत्मनिर्भरता डालने का प्रयास गंभीर आर्थिक स्थितियों में भी होना ही चाहिए।
समाज में भयानक परिवर्तन आ चुके: दुनिया में बहुत कुछ होता है और ऐसा भी होता है कि सम्पन्न अभिभावक बेटी के हिस्से की संपत्ति अपने दिखावे के लिए बचाकर दहेज विरोध की लहर पर सवार हो होशियारी दिखाते हैं। समाज में भयानक परिवर्तन आ चुके हैं, ऐसे में जाति से बाहर गए बच्चों और परिवार के अपमान की जगह उनकी परिस्थितियां समझ कर स्नेह बनाए रखें ताकि समाज से एक वंश पृथक न हो और जो बच्चे जाति में कुछ शर्तों के साथ जुड़ना चाहते हैं उनकी भी सम्मान के साथ स्वीकार्यता होनी चाहिए।
विश्वस्त अभिभावक का साथ जरूरी: विवाह के बाद बच्चों का पालन पोषण 100% रूप से किसी बाहरी के भरोसे करना बच्चे की परवरिश की इमारत में नींव के पत्थर को डैमेज करने जैसा है। भविष्य के होनहारों के जीवन निर्माण के लिए परिवार के किसी एक विश्वस्त अभिभावक का हमेशा साथ होना अति जरूरी है और इसके लिए हर परिवार के सभी अभिभावकों और रिश्तेदारों को खुले मन से सपोर्ट करना चाहिए क्योंकि बच्चों में छुपा परिवार का भविष्य ही समाज का भविष्य है। 
मुझ पर स्वयं चार बच्चियों और एक बेटे की जिम्मेदारी है, निश्चित रूप से मैं तीनों बेटियों को बेटे की तरह पढ़ना परिस्थितियों से जूझना और आत्मनिर्भर होना सिखाऊंगी पर साथ में यह भी बीज मंत्र भेज दे कर भेजूंगी कि परिवार की जरूरत के लिए मेरी तरह बैठना पड़े तो संकोच मत करना क्योंकि शिक्षा व्यर्थ नहीं जाती ,पति की नौकरी और जीवन तराशने में परिवार समाज में कहीं ना कहीं उपयोग में आ ही जाएगी। साथ ही काबिल रहोगे तो परिस्थिति के अनुसार कुछ और कर ही लोगे।

प्रेम को पनपने का समय देना होता है: बच्चों को यह भी समझना जरूरी है कि लव मैरिज करने वाले बच्चे कॉलेज आदि के चार पांच साल के परिचय के बाद एक दूसरे को अच्छी तरह समझ कर मजबूत संबंध बना चुके होते हैं, पर वही अरेंज विवाह में पहली बार मिला हुआ व्यक्ति मिलते ही पसंद आ जाए यह जरूरी नहीं प्रेम को पनपने का समय देना होता है संबंधों को सींचना होता है, समाज को यह निर्णय लेना होगा कि 4 से 5 सालों के प्रयास के बाद भी लड़का लड़की यदि तारतम्य ना बिठा पाएं तो उनके मजबूरी में लिए हुए किसी भी निर्णय को बड़े दिल के साथ स्वीकार किया जाए। ऐसे निर्णयों के लिए हमारी सदियों पुरानी मानसिकता में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है।ऐसा इसलिए कह रही हूं क्योंकि कई बार जीवनसाथी के साथ नए जीवन की अनिश्चितता का भय भी लड़कियों को समय से शादी करने से डराता है। यदि नई पीढ़ी के बच्चों को यह दिलासा रहे कि तुम अपनी जान झोंक देना प्रयास करने में पर फिर भी नहीं बस पाए तो समाज त्यागेगा नहीं।यदि लड़के वाले यह पहल करें कि कन्या धन लड़की का सुरक्षित रहेगा और अपने बेटे की तरह बेटी जैसी बहू यदि इस परिवार में नहीं समा पाई तो वर वधु दोनों को गलती सुधारने का एक और मौका मिलेगा और इसके लिए लड़की के पिता पर अतिरिक्त दहेज का बोझ नहीं पड़ेगा तो जीवन के एक महत्वपूर्ण निर्णय के फाइनल डिसीजन को परफेक्ट बनाने के प्रयास में लड़कियां और लड़के वाले दोनों देर नहीं करेंगे।
प्रयास नहीं किया तो : हमारी संस्कृति में ईश्वर को साक्षी मानकर किया जाने वाला विवाह एक पवित्र संस्कार है और हम जैसे सात जन्मों तक खट्टे मीठे कड़वे हर तरह के अनुभवों के साथ, निभाने का प्रयास करने वाली पीढ़ी का धीरे-धीरे विलुप्त प्राय श्रेणी में आना अवश्यंभावी है।मैं यह नहीं कहती कि बच्चों की दृष्टि में वैवाहिक संस्था का सम्मान गिरने दिया जाए पर वहीं देश काल परिवर्तन हमारी और आपकी सोच की हिसाब से नहीं चलता। आज के बच्चे विश्व स्तर की संस्कृति से जुड़े हैं और उनकी मानसिकता और विचारों को यदि समझने का प्रयास नहीं किया गया तो धीरे-धीरे भविष्य की पीढ़ियां हमें कूप मंडूक कहकर हमारी संस्कृति से दूर होती जाएंगी।
मेरा निवेदन मात्र इतना है कि थोड़ी सी सहूलियत देते हुए सामाजिक नियमों को चलाते रहा जाए, वरना  भाई साहब के शब्दों में वही हाल होगा कि ” हम बड़े कड़े हैं , हमारा बच्चा घर से नहीं निकलता” और बच्चा है की छत ही छत होकर सारा गांव घूम आता है!!शेष छोटा मुंह बड़ी बात कह गई हूं जिसके लिए सभी ज्ञानी जनों और सुधी जनों से करबद्ध क्षमा प्रार्थी हूं।

((Writer is Ex manager of State Bank of India , Director at Powering Yoga and Admin of Brahmbhattworld)

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