अनामिका राजे
राजमार्ग बनाने वाले चाहते तो काटे गए पेड़ों के बीच से रास्ता निकाल सकते थे। उन्हें काटे बिना आड़ी तिरछी घुमावदार सड़कें बना सकते थे। विदेशों में ऐसा होता है और यह मार्गों की सुंदरता को और भी बढ़ाता है! लेकिन इस बात पर किसी का ध्यान नहीं गया।पिछले 15 वर्षों में उन राजमार्गों पर जिस धुआंधार तरीके से पेड़ों की कटाई हुई है, उसका नतीजा आज यह देखा जा रहा है कि ऋषिकेश शहर जो कि 20-25 साल पहले मसूरी की तरह ठंडा रहता था। वह आज दिल्ली की तरह कभी-कभी दिल्ली से भी अधिक गर्म रहने लगा है। सरकार आदेश देती है मात्र काम करने का, लेकिन काम करने के दौरान किन नियमों का अनुपालन करना सख्ती के साथ वातावरण को नुकसान पहुंचाए बिना वह काम करना है; इन बातों को कौन लागू करेगा?
उन कटे हुए पेड़ों के ठूंठ तने जड़ें हम ने वन विभाग के क्षेत्र में इकट्ठा हुईं देखीं,बड़ा दुख हुआ; और सुंदरलाल बहुगुणा याद आए जिन्होंने चिपको आंदोलन चलाया था, लेकिन आज यदि मैं कहती या बुलाती कि कोई मेरे साथ चिपको आंदोलन के लिए चले और उन सड़क के पेड़ों को पकड़ कर खड़ा हो तो आज की तेज रफ्तार जिंदगी में किसके पास समय है कि वह अपनी 2 -4 दिन की छुट्टी खराब करके अपनी नौकरियों से समय निकालकर अपने कई कई दिनों की तनख्वाह का नुकसान उठा के पेड़ों से चिपक के उन्हें बचाने का प्रयास करें !
और इस बात की क्या गारंटी है कि सरकारी कर्मचारी अपने काम को पूरा करने के लिए वन माफियाओं की शह पर पेड़ से चिपकने वाले लोगों के ऊपर बुलडोजर नहीं चला देंगे? और दो-चार परिवार वाले शहीद हो गए तो उनके परिवार का कौन देखने वाला होगा ?दुनिया भी तो निष्ठुर हो चुकी है! आजकल कैसे ऐसे में हम हिम्मत करें अपने छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ कर हम किसी पेड़ पर चिपक के शहीद हो जाएं उसको बचाने के लिए, तो यह हमारी भी स्वार्थपरता ही है एक तरह से! पर उसका दंड हम भुगत रहे हैं।
ऋषिकेश जैसे शहरों में आजकल ए सी चल रहे हैं, जहां जून-जुलाई के महीनों में भी रात के समय पहले कंबल ओढ़ने पड़ते थे! इन पेड़ों के कटने से यह नुकसान भी हुआ कि तापमान बढ़ने के कारण लगभग प्रतिवर्ष ऋषिकेश टिहरी आदि के जंगलों में आग लगने की घटनाएं प्रायः होने लगीं और उन आग लगने की घटनाओं के कारण हवा में प्रदूषण के कारण पार्टिकुलेट मैटर की मात्रा बहुत बढ़ जाती है और पहाड़ों की हवा सांस लेने लायक नहीं रह जाती है, आंखों में और सांस की एलर्जी होने के केसेस बहुत बढ़ जाते हैं। दुखद है किंतु विचारणीय है। आप सभी से एक निवेदन है। ऐसा कहीं भी होता देखें। एक बार कहीं भी पब्लिक प्लेटफॉर्म पर सोशल मीडिया पर आवाज़ जरूर उठाएं, क्योंकि जो वातावरण परिवर्तन हो रहा है, यह जुबानी बातों से नहीं सुधरेगा। कहीं ना कहीं आवाज उठानी होगी। सोशल मीडिया के अभियान आजकल बहुत प्रभावी होते हैं। सरकार तक आवाज आज नहीं तो कल पहुंचती जरूर है। राजमार्गों की जरूरत हमें जरूर थी लेकिन उन पेड़ों के काटे जाने से बढ़े हुए पर्यावरण प्रदूषण/ ग्लोबल वॉर्मिंग की कीमत पर नहीं! उन प्राणों की कीमत पर नहीं जो हों हमारे इतिहास के साक्षी वृद्ध वृक्ष!!