कोरोना वायरस के प्रकोप के बीच चीन की कई देशों से तल्खी बढ़ रही है। अब इस सूची में भारत भी शामिल हो गया है. भारत द्वारा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) नियमों में बदलाव से भड़के चीन की सरकारी मीडिया में यह माहौल बनाया जाने लगा है कि चीन हमारे देश में अपने फार्मा निर्यात को रोक सकता है।
राय तपन भारती/अमित रंजन/ नई दिल्ली
जेनेरिक दवाएं बनाने और उनके निर्यात में भारत अव्वल देश है और इस सेक्टर से भारत को विदेशी मुद्रा में अच्छी कमाई है। साल 2019 में भारत ने 201 देशों को जेनेरिक दवाएं निर्यात की हैं और उससे अरबों रुपए कमाए हैं। लेकिन आज भी भारत इन दवाओं को बनाने के लिए चीन पर निर्भर है और दवाओं को प्रोडक्शन के लिए चीन से एक्टिव फ़ार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट्स (API) आयात करता है। ये दवाइयां बनाने का कच्चा माल होता है। चीन में कोरोना वायरस फैलने की वजह से आयात और निर्यात बुरी तरह प्रभावित हुआ है और एपीआई का आयात ना हो पाने की वजह से कई कंपनियों दवाओं के प्रोडक्शन में कमी आ रही है. जिसका असर आने वाले वक़्त में दवाओं की वैश्विक आपूर्ति पर दिख सकता है।
कोरोना वायरस के प्रकोप के बीच चीन की कई देशों से तल्खी बढ़ रही है। अब इस सूची में भारत भी शामिल हो गया है. भारत द्वारा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) नियमों में बदलाव से भड़के चीन की सरकारी मीडिया में यह माहौल बनाया जाने लगा है कि चीन हमारे देश में अपने फार्मा निर्यात को रोक सकता है।
भारत का मैन्युफैक्चरिंग चीन के मुकाबले महंगा है। नब्बे के दशक तक भारत एपीआई का निर्यात करता था लेकिन इसके बाद चीन ने अपनी इंडस्ट्री को जबर्दस्त सपोर्ट दिया और उसका काफी विकास हुआ। सस्ती बिजली, सस्ती जमीन, सस्ते लेबर आदि की बदौलत चीनी इंडस्ट्री छा गई और उसने अपने एपीआई की भारत में डंपिंग शुरू कर दी। एक फार्मा इंडस्ट्रियलिस्ट का कहना है, ‘चीन में काफी बड़े प्लांट हैं और उनका प्रोडक्शन बड़े पैमाने पर है, जिसका हम मुकाबला नहीं कर सकते। वहां केंद्र और राज्य जैसे अलग नियम-कायदों की समस्या नहीं है। पिछले 25-30 साल में उन्होंने आज इस इंडस्ट्री में अपने को इतना बड़ा कर लिया है कि हम उनसे प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते.’
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सबसे पहले यह जान लें कि एपीआई क्या होता है? यानी एक्टिव फार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट। WHO के अनुसार तैयार फार्मा उत्पाद यानी फॉर्मुलेशन के लिए इस्तेमाल होने वाले किसी भी पदार्थ को एपीआई कहते हैं। एपीआई ही दवा के बनाने का आधार है, जैसे क्रोसीन के लिए एपीआई पैरासीटामॉल होता है तो आपने यदि पैरासीटामॉल का एपीआई मंगा लिया, तो उसके आधार पर किसी भी नाम से तैयार दवाएं बनाकर उसे निर्यात कर सकते। तैयार दवाएं बनाने की फैक्ट्री में ज्यादा निवेश करने की जरूरत नहीं होती है और इसे लगाना आसान होता।
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कोरोना मरीजों के इलाज में जुटे हेल्थ वर्कर्स और डॉक्टर्स को बीमारी से बचाने के लिए मलेरिया, ऑर्थराइटिस और ल्यूपस बीमारी में कारगर हाइड्रोक्सी-क्लोरोक्वीन दवा ने उम्मीद बढ़ा दी है। इसी वजह से दुनिया के कई देशों ने भारत से इस दवा की मांग की है। हालांकि भारत भी इस दवा का रॉ मेटेरियल API तैयार करने में इस्तेमाल होने वाले की स्टार्टिंग मेटेरियल (केएसएम) के लिए करीब-करीब चीन पर निर्भर है। भारत में मुख्य रूप से जाइडस, इप्का और मंगलम फॉर्मास्यूटिकल कंपनियां यह दवा बनाती है। सेंट्रल स्टैंडर्ड ड्रग्स कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन (CDSOCO) के एक अधिकारी ने बताया कि पहले यह दवा सिर्फ मलेरिया के मरीजों के इलाज मेें इस्तेमाल होती थी, लेकिन अब रुमेटाइड ऑर्थराइटिस और ल्यूपस के मरीजों को भी यह दवा दी जाती है, इसलिए इसकी खपत पहले से बढ़ गई है। अब देखना है की सरकार दवा का कच्चा माल एपीआई यानी एक्टिव फार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट का उत्पादन सस्ता बनाने के लिए क्या करती है? सात साल पहले सरकार ने इसके लिए एक कमेटी भी बनाई थी उस कमेटी की फाइल कहाँ है उसे भी खँगालने की जरूरत है।