महामारी के मूल में जो विषाणु है, वह कदाचित् मानव-समाज से कभी न जाने के लिए आया है: डॉ स्कन्द शुक्ल

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एक महामारी आती है- पैंडेमिक। यह सबके जीवन को इस तरह छूती है, जैसे पिछले किसी भूकम्प-सुनामी-बाढ़-अकाल-आगजनी-बवण्डर ने नहीं छुआ। पूर्व की सभी आपदाएँ समय के छोटे दौर में पसरी थीं, जबकि यह महामारी अत्यधिक व्यापक है।

Dr Skand Shukla

डॉ स्कन्द शुक्ल/लखनऊ

स्वप्न देखने का साहस निद्रा पर विश्वास की शर्त रखता है।
आपात्-काल नींद के समान है, जिस पर वश नहीं। जागने पर व्यक्ति को ऐसा लगता है कि वह सब-कुछ अपने अनुसार कर सकता है। (यद्यपि विज्ञान मुक्त इच्छा यानी फ़्री विल पर भी प्रश्न चिह्न लगा रहा है।) लेकिन नींद में तो कुछ भी व्यक्ति के चाहने पर चलता ही नहीं। जो कुछ भी जैविक घटनाएँ नींद में घटती हैं, उनपर व्यक्ति का नियन्त्रण नहीं। इन्हीं घटनाओं में से एक घटना स्वप्न का आना-न आना भी है। व्यक्ति अपने सपने नहीं चुन सकता, जिस तरह से उसके वश में स्वप्न देखना नहीं है।
आपातकाल व्यक्ति से उसका आत्मनियन्त्रण छीन लेता है। अनापात्-काल में वह समझता है कि उसके इर्दगिर्द सब-कुछ (या ज़्यादातर आसपास की बातें) उसके नियन्त्रण में हैं। ऐसा सोचना ग़लत है, पर उसे लगता है। ऐसे समय में कॉन्स्पिरेसियों को अगर वह मानता भी होता है, तब भी वे उसके निजी जीवन को सीधे-सीधे प्रभावित नहीं कर रही होतीं। राजकुमारी डायना को एमआई या किसी और ने मरवाया था! मरवाया होगा! इससे इस व्यक्ति के निजी जीवन पर सीधे-सीधे क्या प्रभाव पड़ा? कुछ नहीं। मनुष्य चाँद पर कभी नहीं गया! न गया हो! चाँद पर जाना-न जाना इस व्यक्ति के लिए सीधे-सीधे कोई महत्त्व नहीं रखता।
फिर एक महामारी आती है। पैंडेमिक। यह सभी के जीवन को इस तरह छूती है, जैसे पिछले किसी भूकम्प-सुनामी-बाढ़-अकाल-आगजनी-बवण्डर ने नहीं छुआ। पूर्व की सभी आपदाएँ समय के छोटे दौर में पसरी थीं, जबकि यह महामारी अत्यधिक व्यापक दौर में फैली हुई है। बल्कि इस महामारी के मूल में जो विषाणु है, वह कदाचित् मानव-समाज से कभी न जाने के लिए आया है।
कॉन्सपिरेसी-प्रेमी व कॉन्सपिरेसी-जीवी भाई के लिए यह उसका आत्मनियन्त्रण छिनने की घड़ी है। जितना भी उसके पास शेष था, वह भी यह वायरस और उसकी बीमारी ले जा रही है। पिछली दुर्घटनाओं की तरह यह दुर्घटना न उसके लिए मात्र एक समाचार है और न उसकी समयावधि कम है। इसलिए ऐसे में उसका कॉन्सपिरेसी-प्रभावित मन कॉन्स्पिरेसियों को और ज़ोर से पकड़ लेता है और उनसे चिपट जाता है।
अपने जीवन को हम अपने अनुसार जिएँ, किसी अन्य के अनुसार नहीं- यह स्वाभाविक है। हम अपने ऊपर अपना कंट्रोल चाहते हैं। राजनीति, धर्म और उद्योगपति हमसे हमारा आत्मनियन्त्रण छीना करते हैं। फिर यह वायरस आ जाता है, जो हमें और भी अल्प-नियन्त्रक अवस्था में ले आता है। ऐसे में हम अपना आत्मनियन्त्रण पाने के लिए ऐसे सिद्धान्त में विश्वास जमा बैठते हैं, जिसकी कुछ अनिवार्य शर्तें हों:
1) यह सिद्धान्त किसी के सर ठीकरा फोड़ सके। यानी जो भी दुर्घटना हुई है, ग़लत-सही किसे के मत्थे मढ़ी जा सके। यह ज़रूरी है। दोष मढ़ते ही सिर का बोझ आधा हल्का हो जाता है। प्लेग यहूदियों ने फैलाया था! और क्या ! सिम्पल ! कोरोनावायरस लैब में बनाकर अमेरिका या चीन ने छोड़ा है! ये तो करते ही यही हैं!
इतना तय कर चुके कॉन्सपिरेसी-प्रेमी को सिंथेटिक वायरोलॉजी जानने में कोई दिलचस्पी नहीं। न उसे इससे मतलब कि क्या वायरस लैब में बनाये जा सकते हैं अथवा नहीं। न वह यह जानना चाहता है कि लैब में वायरस बनाने की क्या समस्याएँ हैं। और अन्त में चाहे लैब में वायरस बनाया जा सकता हो, इससे क्या यह सिद्ध हो जाता है कि वर्तमान सार्स -सीओवी 2 लैब में बनाया गया? विश्वस्त सूत्र क्या कहते हैं?
कॉन्सपिरेसी-प्रेमी विश्वस्त सूत्र चुनता नहीं है, वह चुने हुए ही को विश्वस्त मानता है। जिसे वह चुन चुका है , उसी की सुनता है। अन्य लोग चाहे विशेषज्ञ हों और कहते रहें, उन्हें उनकी बात पर यक़ीन ही नहीं है। वे अज्ञानी हैं अथवा बिक चुके हैं!
कॉन्सपिरेसी-विश्वासी भाई को सार्स-सीओवी 2 के जेनेटिक सीक्वेंस में कोई रुचि नहीं। उसे नहीं मानना अगर दुनिया के लगभग सभी वैज्ञानिक विषाणु के मेकअप को लेकर बार-बार यह कह रहे हैं कि यह लैब-निर्मित नहीं , प्राकृतिक वायरस है। बिक चुके हैं सभी! वह केवल उन दो-चार की बात पर कान धरता है, जो अवैज्ञानिक ढंग से इसे लैब-निर्मित बता रहे हैं। हाँ, यही मसीहा है जो सच बोल रहा है! इसी को बेचारे लोगों की परवाह है! यही मानवता का पुजारी है! बाक़ी सब तो लुटेरे हैं! वह जानता है, तब नहीं मानता! वह जिसे मानता है, उसे ही जानता और जानना चाहता है! वह जाने जाने योग्य को चुनकर उसे जानता है! वह जानने से पहले ही निष्पक्ष नहीं रहा!
2) किसी के सिर दोष मढ़ते ही कॉन्सपिरेसी-प्रेमी का आत्मनियन्त्रण कुछ हद तक वापस लौटता है। अथवा उसे लगता है कि ऐसा हो रहा है। यह घटनाओं पर एक क़िस्म का मनोवैज्ञानिक नियन्त्रण ही है। घटना के दौरान मैंने स्वयं को सँभाल लिया, मतलब घटना को सँभाल लिया! कम-से-कम इतना तो हुआ!
विज्ञान की एक मुख्य धारा होती है। राजनीति की एक मुख्य धारा होती है। इतिहास की एक मुख्य धारा होती है। इन धाराओं से इतर अल्पधाराओं में तैर रहे लोग ही कॉन्स्पिरेसियों को गढ़ते व उनको मानते हैं। हाशिये पर होते हुए वे मुख्य पर अपना नियन्त्रण पाना चाहते हैं। यह एक तरह से असुरक्षा से पार पाने का तरीक़ा है। ऐसे लोग स्वयं को अज्ञानी या नासमझ नहीं मानते: वे स्वयं को समाज के सुधारक या मसीहाओं के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार ‘समाज लोभियों के हाथ बिका जा रहा है’ इन्होने बचा लिया अथवा ‘दुनिया को चन्द लोग लूटे ले रहे थे’, इन्होंने उसका पर्दाफ़ाश कर दिया।
मार्जिन से मेनस्ट्रीम की तरफ़, डिफिकल्ट से ईज़ी की तरफ़ कोई स्केपगोट ढूँढ़ता कॉन्सपिरेसी-प्रेमी भाई आगे बढ़ता है …

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