पन्द्रह जीनों वाला एक विषाणु तीस हज़ार जीनों वाले हम-इंसानों से सवाल कर रहा है। रोज़। हर पल। पर हम लगातार नज़र चुरा रहे हैं।
डॉ स्कन्द शुक्ल/लखनऊ
कोविड-19 ने दुनिया-भर की राजनीतियों-अर्थनीतियों-समाजनीतियों-विज्ञाननीतियों को घुटनों पर ला दिया है। साधारण-सी संरचना वाले वसा और प्रोटीन के खोलों में लिपटे एक नन्हे आरएनए के टुकड़े के आगे सारी मनुष्य-जाति बेबस हुई पड़ी है। हमने पहले भी मुसीबतों से पार पाया है, इससे भी पा लेंगे। लेकिन क्या जो कोविडोत्तर संसार आगे अस्तित्व में आएगा, वह सभी के लिए सुनहरे अवसरों और रुपहले स्वप्नों वाला होगा?
कोविडोत्तर नयी सामान्यताएँ कैसी होंगी? भविष्यवाणियाँ करना हमेशा आसान काम होता है, चुनाव करना मुश्किल। भविष्यवाणियाँ उत्तरदायित्व नहीं लेतीं, वे उन्हें दूसरों पर डालकर पल्ला झाड़ लेती हैं। किन्तु चुनाव अपने साथ ज़िम्मेदारी लाता है, जिन पर लगातार खरा उतरना पड़ता है।
छह प्रश्न बड़े मुँह बाये हमारे सामने हैं। यक्ष बना विषाणु हमसे ये छह सवाल कर रहा है। अब यह हम पर है कि हम युद्धिष्ठिर की तरह इन छह सवालों के धर्मसंगत उत्तर तलाशें अथवा अन्य चार पाण्डवों की तर्ज़ पर अपनी निजी प्यास को तरजीह दें। ये प्रश्न हैं:
1) क्या हम महामारियों की तीव्रता से सीखकर अपने रोकथाम और उपचार को उतना ही तीव्र रख सकते हैं ?
दुनिया के कई देशों ने कोविड-19 के दौरान यह कर दिखाया है। दिनों-दिन में अस्थायी अस्पताल खड़े कर दिये गये , क्लीनिकल केयर-गाइडलाइनें तैयार हो गयीं। सुचारु ढंग से सरकारी व निजी क्षेत्रों ने जनता से सहयोग करते हुए तीव्र गति से जानकारियाँ पहुँचायीं और नयी डायग्नोस्टिक्स-एंटीवायरल दवाओं-टीकों पर रात-दिन काम चल पड़ा। क्या यह सब सामान्य दिनों में सम्भव था? नहीं, शायद नहीं। पर क्या यह सब आगे सम्भव रहेगा ? पता नहीं, कह नहीं सकते।
2) डॉक्टर इलाज के मानकीकरण को आगे कितना महत्त्व देंगे?
यह सच है कि डॉक्टर इलाज के समय मानक शोधों व प्रमाणों को तवज्जो देते हैं। पर इसके बाद भी वे अपने निजी अनुभव को भी अपनी डायग्नोसिस व ट्रीटमेंट की विधियों में शामिल लेते हैं। ऐसे में डॉक्टरों द्वारा दिया गया निदान व उपचार एविडेन्स्ड-बेस्ड होता भी है और नहीं भी। कई बार वे अपनी क्लीनिकल ऑटोनोमी पर साइंस से अधिक भरोसा करने लगते हैं। पर अब कोविड-19 ने दुनिया-भर के डॉक्टरों को वैज्ञानिक जर्नलों को खँगालने की ओर धकेला है। डॉक्टर सामान्य से अधिक पढ़ रहे हैं, वे जागरूक हो रहे हैं। ज्ञान लिया जा रहा है, ज्ञान दिया जा रहा है। क्या मेडिकल ज्ञान का यह वैश्विक आदान-प्रदान आगे भी जारी रहेगा ताकि अनर्गल अवैज्ञानिक उपचार-विधियों से मुक्ति पायी जा सके?
3) क्या दुनिया अपने स्वास्थ्य-कर्मियों (डॉक्टरों-नर्सों व अन्य कर्मचारियों) की सुरक्षा को महत्त्व देगी?
दुनिया जब बीमार पड़ती है , तब वह नहीं सोचती कि उस दुनिया में स्वास्थ्यकर्मी भी आते हैं। “डॉक्टर होकर आप कैसे बीमार पड़ गये”…जैसे प्रश्न हास्यास्पद भी हैं और अज्ञानसम्मत भी। हर वह मनुष्य जो रोगों से बचाने में लगा है, उतना ही मनुष्य है जितना वह जो उन रोगों से जूझ रहा है। मनुष्य बीमार पड़ते हैं, मनुष्य ही उन्हें बचाते हैं। रक्षक उपकरणों के बिना लगातार दुनिया-भर में अपनी जान जोखिम में डालकर सामान्य लोगों को बचाने वाले मनुष्यों को मनुष्य मानने और उनकी ज़रूरतों पर देना क्या आगे हो सकेगा?
जिस देश के स्वास्थ्य-कर्मी शारीरिक-मानसिक रूप से सुरक्षित नहीं, उस देश की जनता सुरक्षित कैसे हो पाएगी ? बीमार चिकित्साकर्मी क्या समाज की सेहत बचा पाएँगे?
4) पैंडेमिक ने डायग्नोसिस एवं ट्रीटमेंट को भी आभासी बना डाला है। लोग अस्पतालों व क्लीनिकों में जाने से परहेज़ कर रहे हैं। वे ऑनलाइन परामर्श ले रहे हैं, बहुत मजबूरी में ही डॉक्टरों से मिलने जा रहे हैं।
क्या यह आगे भी चलेगा? कौन-कौन से चिकित्सा-विभाग वर्चुअल कंसल्टेशन से काम चला लेंगे और किन-किन में डॉक्टरों के पास मरीज़ों को बहुधा जाना ही होगा?
5) इक्कीसवीं सदी प्राकृतिक धमकियों की सदी रहने वाली है। विज्ञान पर वैसा पुष्ट विश्वास और महती श्रद्धा लोगों को अब नहीं हैं, जैसे बीसवीं सदी में थे। पर्यावरण लगातार तेज़ी से विकृत हो रहा है; आगे और विषाणु मनुष्यों में आ सकते हैं। ऐसे में क्या हम अगली पैंडेमिकों के लिए तैयार हैं? जन-स्वास्थ्य-सुविधाएँ पुख़्ता हैं ? मुक़ाबला कर लेंगे ? ईमानदार क्षेत्रीय-राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता और समर्पण है?
6) सबसे अन्तिम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न सामाजिक-आर्थिक विषमता का है।
महामारियाँ उनपर बहुत बुरी बीतती हैं, जो ग़रीब होते हैं। दुनिया-भर में वे ही कोविड-19 से सर्वाधिक कष्ट में हैं। उन्हें ही प्रत्यक्ष और परोक्ष, दोनों तरीक़े से तरह-तरह समस्याएँ उठानी पड़ रही हैं। इस बुरे दौर में निर्धन और निर्धन हो रहे हैं, निर्धनता का दायरा भी लगातार बढ़ता जा रहा है। पर कोविडोत्तर संसार में बेहतर समता-भरा और विषमताहीन समाज निर्मित हो सकेगा?
लोगों को सूचना का शोर करते इंटरनेट-झुनझुने को पकड़ा देने से भी पहले वही बुनियादी ज़रूरतें हैं: भोजन , स्वास्थ्य और शिक्षा। हम कब-तक रोटी माँगने वालों को अफ़ीम चटा कर बहलाते रहेंगे?
पन्द्रह जीनों वाला एक विषाणु तीस हज़ार जीनों वाले हम-इंसानों से ऐसे अत्यावश्यक सवाल कर रहा है। पर हम लगातार नज़र चुराते बगलें झाँक रहे हैं।
(लेखक डा स्कन्द शुक्ल, एमडी (मेडिसिन), डीएम (इम्यूनोलॉजी) लखनऊ में रहते हैं)