यहां नहीं छुओ, इसे नहीं पकड़ो, आखिर सही क्या है: डॉ स्कन्द

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कोरोनावायरस-जन्य महामारी में मृत्यु की वजह चाहे विषाणु का निर्बाध फेफड़ों को क्षतिग्रस्त करना हो, किन्तु सर्वाधिक बन्दिशें त्वचा पर ही लगी है। यहाँ नहीं छुओ, इसे नहीं पकड़ो। कहीं भी शरीर छू न जाए, सोशल (फ़िज़िकल) डिस्टेंसिंग बनाकर रखो।

डॉ स्कन्द शुक्ल/लखनऊ

Dr Skand Shukla

छोटा बच्चा आज-कल स्कूल की ऑनलाइन-क्लासों में साइंस पढ़ता है। उसकी किताब में एक प्रश्न है , “शरीर का सबसे बड़ा अंग कौन-सा है ?” पहले वह यकृत ( लिवर ) का नाम लेता है , फिर रुक जाता है। शायद उसे अपनी गलती का एहसास हो गया है। हाँ , बिलकुल ! फिर वह कहता है, “स्किन” ! जी , स्किन ही तो शरीर का सबसे बड़ा अंग है!

जो हमारी आँखों में नहीं भरता और जो पार्थिव ( ठोस ) नहीं जान पड़ता, उसे हम अंग नहीं मान पाते। हमारी सोच के अनेक पूर्वाग्रहों में से एक ये भी हैं। वे यह सोच ही नहीं पाते कि रक्त भी एक ऊतक है। इसी दोषपूर्ण सोच की वजह से लोग यकृत-आमाशय-गुर्दों-प्लीहा (स्प्लीन) को तो अंग मानते हैं, लेकिन सबसे बड़े अंग त्वचा को बिसार बैठते हैं।

कोरोनावायरस-जन्य महामारी में मृत्यु की वजह चाहे इस विषाणु का निर्बाध फेफड़ों को क्षतिग्रस्त करना हो, किन्तु सर्वाधिक बन्धन-बन्दिशें त्वचा पर ही लगायी गयी हैं। यहाँ नहीं छुओगे, इसे नहीं पकड़ोगे। कहीं भी शरीर छू न जाए, सोशल ( फ़िज़िकल ) डिस्टेंसिंग बनाकर रखोगे। कोरोनावायरस खाँसने-छींकने-बोलने-थूकने के अलावा संक्रमित सतहों या व्यक्तियों को छूने से भी तो फैलता है!
पाँचों ज्ञानेन्द्रियों में सबसे बड़ा पहरा स्पर्श पर लगा है। त्वचा कुछ नहीं छू सकती — न प्रेम में और न प्रतिकार के किसी अन्य के शरीर के दायरे से मिल सकती है। हाँ , घ्राणिका नाक भी मास्क का पर्दा ओढ़े बैठी है और जिह्वाधारी वाचाल मुँह भी , पर ये फिर भी जैसे-तैसे काम चला ले रहे हैं। केवल आँखों और कानों को इस कर्फ्यू में सम्पूर्ण छूट मिली है : ज़ाहिर है , जब पाँच की जगह केवल दो निर्बाध रहेंगे , तब छद्मता को देखने और सुनने की उनकी आशंका बढ़ जाएगी।
छूना मात्र छूना-भर नहीं है। छूना किसी से जुड़ना है , उसे बेहतर समझना है। स्पर्श से हम व्यक्ति के होने का सर्वोत्तम बोध पाते हैं : वह जो दृश्य , घ्राण , श्रवण से परे और बेहतर है। आकार , आकृति , भार जैसे वस्तुनिष्ठ बोधों के अलावा छूना मानवीय समझ और जानकारी की अन्तिम व्यक्तिगत सीमा भी है : जिसका स्पर्श सम्भव नहीं हो पाता , उसे हम सम्पूर्ण अर्थ में होना नहीं जान पाते।
अपने पुनः जी उठने ( रीसरेक्शन ) के बाद ईसा मैरी मैग्डेलेन से अपनी हथेलियों के घावों को स्पर्श करने को कहते हैं। पार्थिव व्रणों का स्पर्श ही व्यक्ति के सचमुच होने का बोध दे सकता है। दुनिया-भर में निराकार-बनाम-साकार इष्ट-उपासना की बहस लम्बी और बहुआयामी है , किन्तु स्पर्श के बिना निजता और आत्मीयता का अंतरंग बोध मिल पाना सम्भव ही नहीं हैं। प्रेम का स्वर्ग भी छुअन है , घृणा का नरक भी। जो सदा हमसे अनछुआ रहा , उससे न भरपूर मुहब्बत की गयी और न तो नफ़रत ही।
त्वचा में स्पर्श के विविध प्रकार हैं। हल्की ( फ़ाइन टच ) छुअन अलग है , जिसकी अनुभूति तब होती है जब प्रेमी प्रेमिका के गाल पर मयूरपंख फिराता है। स्थूल ( कोर्स टच ) अलग है , जिसे हम आम कठोर दैनिक कामकाज के दौरान इस्तेमाल करते हैं। त्वचा के माध्यम से ही किसी कीड़े के काटने से खुजली का पता चलता है , उसी से हम अपने बच्चे की गुदगुदी को बूझकर हँस पाते हैं। त्वचा के कारण भी हमें नित्य गर्मी और सर्दी का संज्ञान मिलता है। और फिर दर्द के विविध स्वरूप ! न जाने कितनी की त्वक्-पीड़ाओं को झेलते हुए हम बड़े होते चले जाते हैं !
त्वचा शरीर का सबसे बड़ा और व्यापक अंग है और ढेर सारे पार्थिव संज्ञानों का माध्यम — इतने में ही उसकी महत्ता समाप्त नहीं हो जाती। कम ही लोग जानते होंगे कि त्वचा शरीर का महत्त्वपूर्ण प्रतिरक्षा-अंग भी है। इसकी परतों के नीचे कितनी ही प्रतिरक्षक कोशिकाएँ गश्त लगाया करती हैं : जहाँ उन्हें शत्रु-कीटाणु मिलता है , वे उस पर टूट पड़ती हैं। शरीर के भीतर सन्देश भेजती हैं कि ‘हमला हो गया है , तैयार हो जाओ’ !
मानव-विकास-क्रम में घ्राण का पतन बहुत पहले हो चुका। सूँघ कर जिस तरह संज्ञान अन्य ढेरों जानवर लेते हैं , मनुष्य नहीं लेते। अब स्पर्श के हिस्से का संज्ञान भी मारा जा रहा है। सब-कुछ जो मस्तिष्क महसूस करे , वह अधिकाधिक यन्त्र-दृश्य या यन्त्र-श्रव्य है। तकनीकी सदा से त्वचा की शत्रु रहती रही। तकनीकी से सदा चाहा कि त्वचा के स्पष्ट-बोध के विकल्प तलाश कर सामने रख दे। प्रेम , घृणा , अभिव्यक्ति , यौन — जो कुछ और जितना भी आभासी हो सके , हो जाए। आभासिता की अपनी अनेक विशिष्टताएँ हैं : तकनीकी की पुत्री होने के कारण वह पारम्परिक सत्यबोध से तीव्रतर है। जितनी देर में किसी से मिलने जाएँगे , उससे पहले चिट्ठी पहुँच जाती थी। किन्तु जितनी देर में चिट्ठी पहुँचती है , उसकी भला ईमेलीय द्रुतगति से क्या तुलना भला !
अब कोविड-19 की इस पैंडेमिक ने त्वचा की मानवीय ज़रूरत पर बड़ा निर्णायक कुठाराघात किया है। इन महीनों प्रेम वर्चुअल चल रहे हैं , विवाह भी। मातम-पुरसी और बर्थडे भी। पढ़ाई-लिखाई और नौकरी भी। सेक्स की ज़रूरतें भी। यहाँ तक तकरार और प्रहार भी। ऐसे में त्वचा की घटती प्रासंगिकता पर पुनः ठहर-ठहर कर सोचने का मन करता है।
बिना छुए कितने दिन हम किसी से प्रेम कर सकते हैं ? क्या अनछुआ प्रेम सम्पूर्ण कहा जा सकता है ? क्या ऐसे प्रेम से दोनों प्रेमियों के मन में कुण्ठाओं का प्रादुर्भाव नहीं होगा ? बिना छुए किसी के प्रति अपनी ईमानदार सम्मति और अपना पुरज़ोर विरोध हम कैसे जता सकेंगे ? बिना किसी को छुए उससे कैसे लड़ सकेंगे , कैसे भिड़ सकेंगे ? बिना छुए हिंसा किस मेल की होगी और अहिंसा किस मेल की ? स्पर्श की ऐसी च्युति हमें कितना और कैसा मनोरोगी बनाकर छोड़ेगी ?
क्या अस्पृश्य सत्य उतने और वैसे ही सत्य होंगे , जैसे हम जानते और समझते आये हैं ? पीपीई पहने-मास्क लगाये हमारा वर्तमान हमसे यह सोचने को कह रहा है।
(मायकलएंजेलो की प्रसिद्ध कृति ‘ आदम की सृष्टि’ में ईश्वर और आदम की तर्जनियों का साक्षात्कार। अस्पृश्य ? स्पर्शोन्मुख ? या स्पर्शोपरान्त ? मायकलएंजेलो यों ही जीनियस नहीं हैं।)
नोट: लेखक डा स्कन्द शुक्ल, एमडी (मेडिसिन), डीएम (इम्यूनोलॉजी) लखनऊ में रहते हैं

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