(संजय गान्धी पीजीआई में डीएम (इम्यूनोलॉजी) के दिनों में डॉक्टर एबल लॉरेंस मेरे अध्यापक रहे हैं। यहाँ इस साक्षात्कार में वे वर्तमान कोविड-19, सार्स-सीओवी 2 व इसके खिलाफ़ टीका-निर्माण के विविध प्रयोगों की चर्चा कर रहे हैं।
साक्षात्कार अँगरेज़ी में है, किन्तु उसका भावानुवाद संलग्न है। प्रयास किया गया है कि कोई महत्त्वपूर्ण बिन्दु छूट न जाए। धैर्यपूर्वक सुनने वाले सुन सकते हैं, पढ़ने वाले पढ़ सकते हैं। – डा स्कन्द शुक्ल, लखनऊ )
प्रश्न : “कोरोनाविषाणु के खिलाफ़ टीका ( वैक्सीन ) बनाना इतना मुश्किल क्यों है ?”
उत्तर : “वैक्सीन के विकास के कुछ महत्त्वपूर्ण चरण होते हैं। सबसे पहले वैक्सीन होनी चाहिए और उस काम को इसे अंजाम देना चाहिए , जिसके लिए इसे बनाया गया है। इसे शरीर को कोई हानि नहीं पहुँचानी चाहिए। कभी-कभी टीके का प्रभाव ( या शरीर का रोग-प्रतिरोधक प्रभाव भी ) शरीर के लिए हानिकारक हो जाता है। यह विषाणु सार्स-सीओवी 2 थोड़ा छलिया क़िस्म का है। इसके खिलाफ़ टीका बनाना इसीलिये इतना सरल नहीं होगा। यद्यपि हम बना तो लेंगे क्योंकि इम्यूनोलॉजी का क्षेत्र काफी प्रगति कर गया है और हम टीकों को बहुत अच्छी तरह से समझने लगे हैं।”
“टीके कैसे काम करते हैं? टीके दो स्तरों पर काम कर सकते हैं: एंटीबॉडी-नामक रक्षक प्रोटीनों का निर्माण करके था रक्षक कोशिकाओं को जन्म देकर जो विषाणु-संक्रमित कोशिकाओं को मारकर विषाणु की मौजूदगी को शरीर में समाप्त कर सकता है। अब एंटीबॉडी भी अनेक तरह से काम कर सकती हैं : अनेक जीवाणु-संक्रमणों जैसे परट्यूसिस या टेटनस में इनके खिलाफ़ बनी एंटीबॉडी इन संक्रमणों के टॉक्सिन ( यानी विषों ) से चिपक कर उन्हें ब्लॉक कर सकती हैं। इस विषाणु के मामले में कोई टॉक्सिन तो है नहीं। तब एंटीबॉडी वायरस के खिलाफ़ क्या करेगी ? एंटीबॉडी वायरस पर एक लेपनुमा ढंग से उसके जिस्म पर चिपक जाएगी और उसे नयी कोशिकाओं में घुसने से रोकेगी। इस तरह से वायरस नयी स्वस्थ कोशिकाओं में एंटीबॉडी के कारण घुस नहीं पाएगा।”
“लेकिन अनेक बार एंटीबॉडी-कोटिंग के बावजूद विषाणु नयी स्वस्थ कोशिकाओं में अन्य तरीक़ों से प्रवेश कर जाते हैं। इसके बावजूद अनेक संक्रमणों में विषाणु कोशिकाओं के भीतर पहुँच कर भी उनके भीतर पनप नहीं पाते , नष्ट कर दिये जाते हैं। कैसे ? कोशिकाएँ अपने भीतर आये एंटीबॉडी-युक्त इन विषाणुओं को पहचान लेती हैं और और अनेक ख़ास प्रोटीनों के माध्यम से इन विषाणुओं को एक ख़ास प्रोटीन से जोड़ देती हैं , जिसे यूबीक्विटिन कहते हैं। यूबीक्विटिन का लेबल वायरसों पर लगना यानी यह तय होना कि इन्हें कोशिकाओं के भीतर नष्ट किया जाना है। यूबीक्विटिन-युक्त इन विषाणुओं को प्रोटियोज़ोम नामक संरचना के भीतर नष्ट कर दिया जाता है। इस विनष्टीकरण के बाद विषाणुओं के टुकड़ों को ये कोशिकाएँ प्रतिरक्षक कोशिकाओं के सम्मुख प्रस्तुत करके उन्हें ट्रेन करती हैं ताकि उन्हें विषाणुओं से लड़ने के लिए तैयार किया जा सके।”
“इस विषाणु के पास एक ख़ास प्रोटीन है : पपेन-लाइक-प्रोटिएज़। यह प्रोटीन यूबीक्विटिन को विषाणु से हटा देता है। कल्पना कीजिए कि कोई पुलिसवाला है जिसने किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया है और वह उसे जेल भेज रहा है। रास्ते में कोई उसे मुक्त करा देता है। इस विषाणु के पास यह क्षमता मौजूद है। इस क्षमता पर हमें अभी और ढेरों शोधों की आवश्यकता है जो आने वाले समय में उपलब्ध होंगे।”
प्रश्न: “क्या यह अद्भुत क्षमता इसी विषाणु के पास है या अनेक अन्य विषाणुओं के पास भी होती है ?”
उत्तर : “कीटाणुओं और उनके होस्ट ( यानी आतिथेय ) के बीच एक क़िस्म की होड़ चलती रहती है। विकासवाद के अनुसार वे हमपर आक्रमण करते हैं, हमारा प्रतिरक्षा-तन्त्र उससे निबटता है , फिर वे कुछ नया पैंतरा चलते हैं। फिर उससे हमें पार पाना होता है। यह क्रम चलता रहता है। संक्रमित होने के बाद कोशिकाएँ अनेक तरह के अलार्म द्वारा आसपास व दूर की कोशिकाओं को चेतावनी भेजती हैं। इनमें इंटरफेरॉन नामक रसायन प्रमुख है। इस-जैसे अनेक रसायनों के कारण विषाणु-संक्रमित कोशिकाओं के पास अनेक लड़ाकू प्रतिरक्षक कोशिकाएँ आ जाती हैं : इनमें सीडी 8 पॉज़िटिव लिम्फोसाइट प्रमुख हैं। ये कोशिकाएँ विषाणु -संक्रमित कोशिकाओं को मारकर विषाणु का खात्मा करती हैं।”
“( कई लोग दीर्घकाल तक संक्रमित रह सकते हैं और दूसरों को विषाणु फैलाते रहते हैं। इन विषाणु-फैलाने वालों को सुपरस्प्रेडर कहा जाता है और ऐसे लोगों की कोशिकीय प्रतिरक्षा मज़बूत नहीं होती यानी वे कोशिकाएँ इनमें ठीक से काम नहीं कर रही होतीं , जो विषाणु-संक्रमित कोशिकाओं को नष्ट करती हैं। )”
“विषाणु से शरीर तीन चरणों में लड़ सकता है : पहले कोशिकाओं में विषाणु को घुसने ही न दिया जाए , दूसरे कोशिकाओं में प्रवेश के बाद यूबीक्विटिन द्वारा टैग करके इसे नष्ट दिया जाए और तीसरा कोशिकाओं से अलार्म भेजकर अन्य मारक कोशिकाओं-जैसे सीडी 8 कोशिकाओं से सहायता लेकर इन्हें मारा जाए। चूक भी इन तीन चरणों में हो सकती है , विषाणु अपनी रक्षा का प्रबन्ध कर सकते हैं। ( अनेक विषाणु ऐसा करते भी हैं। ) उदाहरण के तौर पर डेंगी को लीजिए। पहली बार डेंगी-संक्रमण के बाद व्यक्ति को वायरल बुख़ार होता है ( और शरीर के भीतर निर्मित एंटीबॉडी-द्वारा लेपित विषाणु नष्ट नहीं होते बल्कि और सुरक्षित हो जाते हैं। ( इस तरक़ीब को एंटीबॉडी-मीडियेटेड एनहैंसमेंट कहा जाता है। ) बुख़ार के बाद कुछ दिनों के भीतर अनेक व्यक्ति गम्भीर रूप से बीमार पड़ जाते हैं कुछ की मृत्यु भी हो जाती है। ( इसके पीछे भी एंटीबॉडी-मीडियेटेड एनहैंसमेंट जिम्मेदार होता है। )”
“टीका बनाने वालों को ध्यान रखना होता है कि एंटीबॉडी-मीडियेटेड एनहैंसमेंट न होने पाए। टीका ऐसी एंटीबॉडी बनाये जो विषाणु के उसी हिस्से से चिपके जिसके सहयोग से विषाणु कोशिका के भीतर प्रवेश पाता है। या फिर ऐसा टीका हो जो विषाणु-मारक कोशिकाओं के निर्माण में सहयोग दे। शरीर के भीतर एंटीबॉडी बनाने के लिए दिये जाने वाले टीकों में कुछ भी हो सकता है : विषाणु के प्रोटीन , अन्य रसायन व प्रोटीनों के समूह इत्यादि। किन्तु विषाणु-मारक कोशिकाओं के निर्माण के लिए विषाणु के प्रोटीनों का निर्माण मानव-कोशिकाओं के भीतर ही होना चाहिए , बाहर से इन प्रोटीनों को देने से यह तरीक़ा काम नहीं करेगा। इसी लिए लाइव एटेनुएटेड वैक्सीन ( जीवित क्षीणकाय कीटाणुओं से बनायी गयीं ), डीएनए-वैक्सीन इत्यादि बेहतरीन कोशिकीय प्रतिरक्षा प्रदान करती हैं। कभी-कभी कोशिकीय प्रतिरक्षा पूरी तरह से विषाणु-संक्रमण को न भी रोक सके , तो भी उसे कमज़ोर करने में कामयाब तो हो ही जाता है।”
प्रश्न: “विश्व-स्वास्थ्य-संगठन ने तीन मुख्य वैक्सीनों की बात की है, जो क्लीनिकल ट्रायलों के लिए उपलब्ध हैं। इसके अलावा चालीस और वैक्सीन हैं , जिनके प्रीक्लीनिकल ट्रायल चल रहे हैं। आप इन प्रयासों के बात क्या सोचते हैं ?”
“यह सचमुच अद्भुत है कि समूचा विश्व अपने संसाधनों के साथ इस विषाणु के खिलाफ़ आ-जुटा है। अलग-अलग लोग अलग-अलग नीतियों पर काम कर रहे हैं। कुछ तकनीकें अपेक्षाकृत तेज़ हैं , जिनमें कुछ ख़ास प्रोटीन , निष्क्रिय वायरस , आरएनए इत्यादि वैज्ञानिक कर इस्तेमाल कर रहे हैं। कोई आवश्यक नहीं कि जो वैक्सीन सबसे जल्दी बने , वही सबसे कारगर भी हो। अगर कोई वैक्सीन नहीं काम करेगी , तो दूसरी आएगी। इतनी जल्दी ट्रायलों का अर्थ यह भी है , कि बनाने वालों पर शीघ्रता का दबाव है। एडिनोविषाणुओं व मीज़ल्स-जैसे विषाणुओं का प्रयोग भी वैक्सीन-निर्माताओं ने मर्स-जैसे कोरोनावायरस में किया है और पशुओं में कुछ सफलता मिली है। इससे भी सबक लिये जा सकते हैं।”
“कोशिश की जाए कि विषाणु के रिसेप्टर-बाइंडिंग डोमेन को टारगेट किया जाए। यह ही विषाणु के वे हिस्से हैं , जिनके द्वारा यह मानव-कोशिका से चिपकता व जुड़ता है। लेकिन इन हिस्सों पर आधारित वैक्सीन बनाना आसान नहीं है। हमारे पास एक-से-बाद-एक वैक्सीन बनाने का समय भी नहीं है ,इसलिए एक-साथ ढेर सारी वैक्सीनों पर काम चल रहा है। व्यापक-उत्पादन का भी वैक्सीन-निर्माण के समय ध्यान रखना होगा और उन्हें पहले अधिक रिस्क वाले व्यक्तियों ( चिकित्सा-कर्मियों , पुलिसकर्मियों , विमानन व अन्य आवागमन-कर्मचारियों ) को देना सही रहेगा। फिर वृद्धों को दिया जाना ठीक रहेगा।”
प्रश्न : “क्या इसमें एक या डेढ़ साल लगेगा ?”
उत्तर : “हाँ , डेढ़ साल लग सकता है। इसलिए संक्रमण को धीमा रखना ज़रूरी है , क्योंकि हमें वैक्सीन व असरदार दवाओं को बनाने के लिए समय चाहिए। उदाहरण के लिए रेमडेसिविर नामक दवा को ले लें , जिसे आरम्भिक शोध में कोविड-19 में कारगर पाया गया है। इसकी बहुत ही कम मात्रा संसार-भर में है। इस तरह से संसार-भर के लिए आवश्यक दवाओं व वैक्सीन को बनाने के लिए अनेक महीने तो लग ही जाते हैं।”
प्रश्न : “एक अन्तरराष्ट्रीय शोध-रिपोर्ट के अनुसार जिन देशों में बीसीजी का टीका प्रचलित है , वहाँ इस विषाणु का दुष्प्रभाव कम हुआ है। क्या कोरोना-विषाणु और तपेदिक ( ट्यूबरकुलोसिस ) के जीवाणु में आप कोई साम्य पाते हैं ?”
उत्तर : “ आपने जैसे कहा कि बीसीजी एक जीवाणु है और कोरोना-विषाणु एक विषाणु — यानी दोनों बहुत ही भिन्न हैं। इम्यूनिटी बहुत ही स्पेसिफ़िक यानी विशिष्ट होती है। मसलन अगर आपको डेंगी की किसे ख़ास स्ट्रेन का संक्रमण होता है , तो आपको इम्यूनिटी उसी ख़ास स्ट्रेन के खिलाफ़ मिलती है। डेंगी के ही दूसरे स्ट्रेन के ख़िलाफ आपको इम्यूनिटी नहीं मिलती ; बल्कि यदि भविष्य में दूसरी स्ट्रेन से आप संक्रमित होने पर संक्रमण अधिक गम्भीर होता है। यानी इम्यूनिटी जेनेरिक नहीं विकसित होती , स्पेसिफिक विकसित हुआ करती है। ऐसे में वर्तमान कोविड-19 के प्रति इम्यून केवल वे लोग हैं , जिन्हें यह संक्रमण हो चुका है। सम्पूर्ण मानव-प्रजाति में इस नये विषाणु के खिलाफ़ प्रतिरोधक क्षमता नहीं है , इसीलिये तो यह पैंडेमिक है ! इसलिए इम्यूनिटी शब्द का प्रयोग हमें बहुत सावधानी से करना चाहिए। इम्यूनिटी की गलतफ़हमी मन में रखने से आप वे सुरक्षा के क़दम नहीं उठाएँगे , जो आपको उठाने चाहिए थे।”
“संक्रमण की रोकथाम का सबसे स्पष्ट ढंग है संक्रमित व्यक्ति को अलग-थलग कर देना। यहीं आयसोलेशन व क्वारंटाइन का महत्त्व आता है। आयोसलेशन पक्के तौर पर संक्रमित लोगों के लिए और क्वारंटाइन संक्रमण के सन्दिग्ध लोगों के लिए है। हम संक्रमण क्यों नहीं रोक पा रहे ? क्योंकि हम हर किसी संक्रमित को ट्रेस करके ढूँढ़ नहीं पा रहे। बड़ी जनसंख्या वाले देशों में यह समस्या बहुत मुश्किल हो जाती है। सोशल डिस्टेंसिंग , मास्क पहनना , हाथों को धोना — ये सभी तरीक़े विषाणु के प्रसार को ही रोकने के लिए किये जा रहे हैं। इन-सब पर हमें पूरा ध्यान देना चाहिए। इन पर ध्यान न देकर बीसीजी या किसी अन्य सम्भावित रक्षण के सहारे रहने का जोख़िम हम नहीं उठा सकते। देश-भर में जो जहाँ-तहाँ कोरोना-मामलों के समूह पहचान में आ रहे हैं , वहाँ लोगों की यह ग़लतफहमी ज़िम्मेदार है कि वे इस विषाणु से संक्रमित नहीं होंगे।”
“अगर आपको कोरोना-संक्रमण होता है , तब आपके साथ आपके परिवार के लोग भी संक्रमित हो सकते हैं। इनमें से कोई वृद्ध व्यक्ति हो सकता है , किसी को ब्लडप्रेशर या डायबिटीज़ हो सकती है। आप जिसे यह संक्रमण देते हैं , वह किसी अन्य को दे सकता है। हो सकता है कि किसी व्यक्ति में इस संक्रमण के कारण गम्भीर लक्षणों का ख़तरा कम हो , पर उस व्यक्ति के कारण दूसरे व्यक्ति में गम्भीर संक्रमण हो सकता है। ऐसे में पैंडेमिक को हराने के लिए संक्रमण-प्रसार की चेन को तोड़ना ज़रूरी है।”
प्रश्न : “सोशल मीडिया पर ढेर सारे भोजनों ( यहाँ तक कि गर्म पानी की भी ) चर्चा है। यहाँ तक कि लोग एयर-कंडीशनरों के प्रयोग से भी बच रहे हैं। एक इम्यूनिटी-एक्सपर्ट के तौर पर आप क्या राय रखते हैं ?”
“पहली बात कि कोरोनावायरस के प्रति किसी के पास इम्यूनिटी नहीं। जो है ही नहीं , उसे बूस्ट कर सकते नहीं। लेकिन फिर भी इम्यूनिटी का एक सामान्य अन्तःस्थ प्रकार भी है। यह प्रकार विषाणु के प्रति स्पेसिफिक नहीं है , जेनेरिक है। ऐसे में अगर आपके शरीर में किसी पोषक तत्त्व की कमी है , तब उसकी पूर्ति इम्यूनिटी को स्वस्थ कर सकती है। विटामिन डी या ज़िंक की कमी है , तो उसे लिया जा सकता है। डायबिटीज़ अनियन्त्रित है , तो उसे नियन्त्रित किया जा सकता है।”
“लेकिन अगर आपमें किसी विटामिन या खनिज की कमी है ही नहीं , तब उसे खाने से इम्यूनिटी बढ़ जाएगी — ऐसा नहीं होता। उदाहरण के लिए विटामिन डी की कमी का टीबी से सम्बन्ध है। यही कारण है कि पुराने समय में टीबी के रोगी सोलेरियम में रखे जाते थे, जहाँ उन्हें सूर्य का प्रकाश मिलता था जिसके माध्यम से त्वचा में विटामिन डी बनती थी। ( यद्यपि उस समय के लोग यह जानते नहीं थे। ) गर्म पानी के सेवन से भी कोरोनाविषाणु से नहीं बचा जा सकता।”
“आपका शुक्रिया !”
डॉ.स्कन्द शुक्ल, एमडी (मेडिसिन), डीएम (इम्यूनोलॉजी) पर क्लिक कर।