अवसाद से मुक्ति: योगा से विदेश में भी कोरोना रोगी लाभ उठा रहे

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बार्सिलोना से ऐसी खबरें आई हैं, जो खासतौर से भारत के लोगों के लिए आंखें खोलने वाली हैं। बार्सिलोना के संकमित मरीज अस्पताल मे अनुशासित तरीके से इलाज करा रहे हैं। साथ ही अवसाद से उबरने के लिए मेडिटेशन भी करते हैं। अनेक मरीज ओम् मंत्र के साथ नाडी शोधन प्राणायाम करते हैं।

स्वास्थ्य से लेकर आर्थिक मोर्चे तक पर चोट करते कोविड-19 से बड़ी संख्या में लोग अवसादग्रस्त हो रहे हैं। योग की शक्ति इस स्थिति से बहुत हद तक उबार सकती है। जिन लोगों को यह बात समझ में आती है, उनकी दिनचर्या में तो योग शामिल हो चुका है। पर मोटे तौर पर दो तरह के लोग आज भी योग से दूर हैं। एक तो वे हैं, जिन्हें इसके महत्व का ज्ञान नहीं है। दूसरे वे लोग, जिनकी धार्मिक व सामाजिक मान्यताएं योग साधना में बाधक हैं। इस मामले में हमारी फितरत पश्चिमी देशों के उन लोगों की तरह नहीं, जिनकी अलग-अलग धार्मिक और सामाजिक मान्यताएं योग साधना में बाधक नहीं हैं।

 इस चर्चा को आगे बढ़ाने के लिए बात शुरू करते हैं स्पेन से। कोरोना युग में अमेरिका और इटली की तरह स्पेन का दुर्भाग्य सर्वविदित है। पर उस देश के बार्सिलोना से ऐसी खबरें आई हैं, जो खासतौर से भारत के लोगों के लिए आंखें खोलने वाली हैं। बार्सिलोना के संकमित मरीज अस्पताल मे अनुशासित तरीके से इलाज करा रहे हैं। साथ ही अवसाद से उबरने के लिए मेडिटेशन भी करते हैं। अनेक मरीज ओम् मंत्र के साथ नाडी शोधन प्राणायाम करते हैं। यही योग-शक्ति मौत के मुहाने पर खड़े मरीजों के आशांत मन को सांत्वना प्रदान करती है और चिकित्सकों में आस्था प्रगाढ करती है।

रोमन कैथोलिक धर्मावलंबियों के देश में ओम् मंत्रोच्चारण के साथ प्राणायाम या ध्यान करने की बात भारतीय सोच के लिहाज से अटपटी लग सकती है। पर उनके वर्षों का संस्कार मंत्रोच्चारण में बाधा उत्पन्न नहीं होने देता। सवाल है कि ऐसा संस्कार कैसे बना? इसका जबाव एक मजेदार वाकए में अंतर्निहित है। बार्सिलोना के उस अस्पाताल में शल्य चिकित्सा का प्रबंधन बड़ी समस्या थी। भयभीत मरीज ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देते थे कि कई बार शल्य-क्रिया असंभव हो जाता था। सन् 1979 में बिहार योग या सत्यानंद योग के प्रचार के सिलसिले में स्वामी निरंजनानंद सरस्वती बार्सिलोना में थे। एक योग सत्र के दौरान अस्पताल के वरीय चिकित्सक ने सवाल कर दिया कि क्या शल्य चिकित्सा के लिए अस्पताल आने वाले मरीजों का मानसिक तनाव कम करने में योग की भूमिका हो सकती है? स्वामी जी ने छूटते ही कहा, “हां, हो सकती है।“

इसके बाद बीस मरीजों को एक महीने के योगाभ्यास के लिए तैयार किया गया। उन्हें एक नासिका से गहरा श्वास लेकर दूसरी नासिका से छोड़ते समय ओम् की ध्वनि निकालनी होती थी। रोज पांच मिनटों के इस योगाभ्यास का मन पर क्या प्रभाव होता है, इसे बायोफीडबैक सिस्टम के जरिए देखा जाता था। बार्सिलोना का चिकित्सक समुदाय यह देखकर हैरान था कि इस क्रिया से मरीजों की अल्फा तरंगे बढ़ गईं थीं। नतीजतन, हृदय गति नियंत्रित हो गई और तनाव से मुक्ति मिल गई थी। तब इस विधि को व्यवहार रूप में लाया जाने लगा। नतीजा हुआ कि शल्य क्रिया के दौरान एनेस्थिसिया की खपत आधी रह गई। आपरेशन के बाद हिलिंग में भी समय कम लगने लगा। जानकर हैरानी होगी कि उस अस्पताल में बीते चालीस वर्षों से निरंतर शल्य-क्रिया के लिए आने वाले मरीजों को पहले यह योगाभ्यास कराया जाता है। मौजूदा संकट में वही अनुभव काम आ रहा है।

भारत की जो योग विद्या बार्सिलोना वालों के लिए संजीवनी का काम कर ही है, वह भारतीयों के हर वर्ग में सहज स्वीकार्य नहीं है। वरना तस्वीर थोडी अलग होती। देश के अनेक भागों से खबरें आ रही हैं कि कोरोनावायरस से संक्रमित लोग या तो अस्पतालों से भागने की कोशिश करते हैं या चिकित्सकों के साथ गलत व्यवहार कर रहे हैं। पश्चिम के अनेक देशों के लोगों को अपने धार्मिक विश्वासों के बावजूद मंत्रों को आत्मसात करने में परेशानी नहीं होती। इसलिए कि वे इसे किसी धर्म से जोड़कर नहीं देखतें। उनकी नजर में मंत्र योग साधना का महत्वपूर्ण अंग है और यह विज्ञान है, जो शरीर को व मन को व्यवस्थित करने में मददगार है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती तो कहते थे कि उन्होंने कट्टर कैथोलिक देशों और इस्लामिक देशों में भी योग सिखाया। लोगों से मंत्रोच्चार करवाया। किसी को परेशानी नहीं होती थी।

भारत में भाषा को लेकर आग्रह भी मंत्रोच्चारण में बाधक है। मंत्रों की भाषा संस्कृत है, जो सभी धर्मों के लोगों को सहज स्वीकार्य नहीं है। पर संस्कृत में मंत्र के प्रभावों का वैज्ञानिक कारण है। यह स्थापित सत्य है कि मंत्र का उच्चारण और उसकी ध्वन्यात्मक सृष्टि उसका प्राण होता है। संस्कृत में उसका असर ज्यादा इसलिए होता, क्योंकि उसका उच्चारण ध्वन्यात्मक होता है। “अ” लिखेंगे तो “अ” ही पढ़ा जाएगा। ऐसा नहीं कि अंग्रेजी का “पी” शब्द लिखा और “प” पढ़ा। “सी” लिखा और कभी-कभी “क” पढ़ेंगे। पश्चिम वाले समझ गए कि इन वैज्ञानिक बातों का किसी धर्म से लेना-देना नहीं है। इस लिहाज से देखा जाए तो आज के समय में मानसिक उथल-पुथल के शिकार भारतीयों को भी योग के रास्ते में अपने धार्मिक विश्वासों को आड़े नहीं आने देना चाहिए।

आमतौर पर अवसादग्रस्त लोग इस स्थिति में नहीं होते कि आसन, प्राणायाम. प्रत्याहार, धारणा और ध्यान की साधना कर सकें। हालांकि प्राणायम की कुछ विधियां संक्रमण के लिहाज से बेहद उपयोगी हैं, जिनकी चर्चा योगाचार्य बार-बार लगातार कर रहे हैं। बावजूद अवसादग्रस्त लोगों के लिए शिद्दत से महसूस किया गया कि सरल योगाभ्यास करा कर उन्हें मानसिक संकट से उबारा जाना चाहिए। तभी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए जरूरी योगाभ्यास करना संभव हो सकेगा। इसलिए, स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की तरह ही महाराष्ट्र के जीएस कॉलेज ऑफ योगा एंड कल्चरल सिंथिसिस के प्रिंसिपल और विश्व विख्यात कैवल्यधाम स्वास्थ्य और योग अनुसंधान केंद्र से ताल्लुकात रखने वाले डॉ एसडी भालेकर ने मानसिक तनाव से बचने या उबरने के लिए ओम् मंत्र के साथ नाड़ी शोधन प्राणायाम की सिफारिश की है। उनका कहना है कि जिन लोगों को ओम् शब्द से परेशानी है, वे कोई और स्वर निकाल सकते हैं। कम से कम भ्रामरी प्राणायाम तो कर ही सकते हैं। इसके भी लाभ हैं।

बार्सिलोना के अलावा भी दुनिया के अनेक हिस्सों में श्वास-प्रश्वास के साथ मंत्रों के मन पर प्रभाव का वैज्ञानिक अध्ययन हो चुका है। उनसे साबित हो चुका है कि इस योगाभ्यास से सेरोटोनिन न्यूरोट्रांसमीटर सक्रिय होता है और हमारे मस्तिष्क में “अमिगडला” के रूप में डर का जो केंद्र होता है, उसकी सक्रियता सामान्य स्तर पर आ जाती है। अपने देश में कॉसमॉस इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड बिहैवियरल साइंसेस भी कुछ ऐसे ही निष्कर्ष पर पहुंचा है। इन परिणामों से स्पष्ट है कि विज्ञानसम्मत मंत्र-योग की शक्ति अवसाद से मुक्ति दिलाने में सक्षम है।

(लेखक किशोर कुमार वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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