एक दिन यह महामारी भी बीते दिनों की कहानी हो जाएगी: डा स्कन्द शुक्ल

0
574
मैंने फ़िल्म ‘कन्टेजियन’ को देखकर विषाणु के पैंडेमिक-प्रभाव को नहीं जाना, मेडिकल पाठ्यपुस्तकों में सालों-साल अलग-अलग बीमारियों के कारणों-कारकों-प्रभावों को पढ़कर समझा।

कोविड-19-पैंडेमिक व जानकारियों के स्वर्णमृग: नमक-पानी-डेटॉल-सैनिटाइज़र से सामग्रियों को धोने वाले समाचारों के झमेले में जो आम जन फँसेंगे वे उस समुदाय से भिन्न हैं, जो रोज़ विज्ञान-सम्बन्धी क़िस्म-क़िस्म का क्षैतिज यानी फ्रिंज धूसर ज्ञान बटोरा करता है।

लेखक: डा स्कन्द शुक्ल, लखनऊ के जाने माने डाक्टर  

Dr Skand Shukla

स्वर्णमृग का सबसे विलक्षण गुण-धर्म। ज़ाहिर है, मृग होना तो नहीं था। स्वर्णिम होना महत्त्वपूर्ण था, पर वह भी प्राथमिक नहीं। स्वर्णमृग-सम्बन्धित सबसे अद्भुत बात स्वर्णिम मृग का सरलता से एकदम समीप पाया जाना था। झूठ के सामीप्य ही में वह बात होती है जो लोगों को सर्वाधिक आकर्षित करती है।

सच सरल नहीं होते: यह नहीं कहूँगा। सच व्यापक न हों, ऐसा भी हमेशा नहीं होता। पर जितनी सरलता और निकटता झूठ प्रदर्शित करता है, सच कर नहीं सकता। सत्य के लिए उसका सत्य होना शिव होने से भी अधिक महत्त्व रखता है, सुन्दर तो फिर बाद की बात है ही। ढेरों सत्य शिवत्व और सौन्दर्य का बलिदान देकर भी सत्यत्व की रक्षा करते हैं। इतनी और इस क़दर कि उनके शिवत्व और सौन्दर्य के मिट जाने के बाद सत्यत्व में ही लोगों को शिवत्व और सौन्दर्य के दर्शन होने लगते हैं। यानी सत्य स्वयं में पर्याप्त है, सम्पूर्ण है। जो सत्य है, वह स्वयमेव शिव-सुन्दर दोनों हो जाता है।

आजकल कोविड-19 पैंडेमिक से संसार-भर के लोग जूझ रहे हैं। ढेरों लोग शारीरिक-मानसिक-सामाजिक स्तर पर इस रोग से लड़ाई लड़ रहे हैं। वास्तविक व आभासी संसारों में भी इससे तरह-तरह के युद्ध जारी हैं। इन्हीं में एक समर-प्रकार सूचना और ज्ञान का भी है। क़िस्म-क़िस्म की जानकारियाँ, तरह-तरह के नुस्खे, भाँति-भाँति की बातें। सबके अपने-अपने दावे, सबके अपने-अपने वादे।

इनमें से ढेरों जानकारियाँ छद्म हैं, असत्य हैं, झूठी हैं। कई के पक्ष में कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं हैं, अनेक कॉन्सपिरेसी-मात्र हैं। पर उनकी ख़ासियत जनता के बीच सरलता और अपनत्व के साथ पंचवटी के स्वर्णमृग की तरह प्रस्तुत हो जाना है। कुलाँचे मारती स्वर्णिमा आपके एकदम पास थी और आप उसे नज़रअंदाज़ करते रहे! कैसे नादान रहे भाई आप!

फ़ेक न्यूज़ और जानकारियों के भी अपने-अपने पाठक हैं। (यों सत्य की भी होती है।) नमक-पानी-डेटॉल-सैनिटाइज़र से सामग्रियों को धोने वाले समाचारों के झमेले में जो आम जन फँसेंगे वे उस समुदाय से भिन्न हैं, जो रोज़ विज्ञान-सम्बन्धी क़िस्म-क़िस्म का क्षैतिज यानी फ्रिंज धूसर ज्ञान बटोरा करता है। (क्षैतिज ज्ञान यानी वह ज्ञान जो अभी भी वैज्ञानिकों में एस्टैब्लिश नहीं हुआ, जिसपर अभी वाद-विवाद-संवाद जारी हैं।) आम आदमी को कोविड-19 के बारे में गम्भीर साइंसबाज़ी नहीं करनी, हमारे देश में तो वैसे भी साइंस-वाइंस में शहरी लोगों के एक ख़ास तबके की ही अधिक दिलचस्पी हुआ करती है। यह तबका भी अपेक्षाकृत युवा है: इसने कन्टेजियन व इंटरस्टेलर-जैसी फ़िल्मों को देखकर साइंस में अभिरुचि को पाला-पोसा है। इस वर्ग के लिए अलग क़िस्म के कॉन्सपिरेसी-सिद्धान्त बनाये जाते हैं: वे जिनमें अदद हॉलीवुडीय प्लॉट हों, फ़न्तासी या गल्प सिद्धान्त हों और ख़ूब सारी वैज्ञानिक शब्दावली भी।

कोविड-19 की इस लड़ाई में मुद्दा प्राचीनता-बनाम-नवीनता का है ही नहीं। मुद्दा तो शोधसम्मत ज्ञान का है, जिसे हम जनता के बीच बाँट सकें। जो कुछ शोध-जन्य और शोधसम्मत नहीं है, उसे विज्ञान न अपना और न कह सकता है। ऐसे में साँस रोकने की क्षमता से कोविड-19 को रोक सकना, डेटॉल से फल-सब्ज़ी धोना, लहसुन खाकर इस रोग से बच जाना और विषाणु के जन्म एवं प्रसार को ही जैविक अस्त्र या प्रयोगशाला-लीक मानना, अलग-अलग मनोदशाओं पर अपना अंकन करते पाये जाते हैं।

मैंने फ़िल्म ‘कन्टेजियन’ को देखकर विषाणु के पैंडेमिक-प्रभाव को नहीं जाना, मेडिकल पाठ्यपुस्तकों में सालों-साल अलग-अलग बीमारियों के कारणों-कारकों-प्रभावों को पढ़कर समझा। इसी तरह क्रिस्टोफ़र नोलन की ‘इंटरस्टेलर’ देखने के बाद मुझे ब्लैक होल (कृष्ण विवर) के ईवेंट होराइज़न की जानकारी नहीं मिली: उसे मैंने विस्तार से स्टीफ़न हॉकिंग की पुस्तक ‘अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ़ टाइम’ से समझा। किन्तु अनेक डॉक्टर ऐसे भी हैं, जिनपर हॉलीवुडीय संस्कार पाठ्य पुस्तकीय संस्कारों से गहरे खचित हुए हैं। उनके ऊपर हो चुके इस गहरे प्रभाव पर क्या कहा जाए! इसी तरह अन्य क्षेत्रों के अनेक मित्र भी सेवंथ-एट्थ डायमेंशन, स्ट्रिंग थ्योरी, सब-एटॉमिक पार्टिकल-ज़ू व यूनिफाइड थ्योरी ऑफ़ एवरीथिंग जैसे विषयों पर इतना कुछ ‘नवीनतम’ पढ़ते रहते हैं कि वे कब मुख्यधारा की भौतिकी-खगोल-रसायन से कट जाते हैं, उन्हें पता ही नहीं चलता!

विज्ञान में शोधपरक होना कल्पनाशीलता माँगता है, पर यह कल्पनाशीलता कुछ भी सोच बैठने की आवारगी नहीं होती। वैज्ञानिक शोधपरक ढंग से अपने जिन नतीजों को प्रस्तुत करता है,वे पिछले वैज्ञानिकों के प्रमाणों पर आधारित हुआ करते हैं। कुछ भी-कैसा भी नवीन और अजब-भर हो -इतने-मात्र से विज्ञान उसे संस्तुति नहीं दे सकता। नवीनता और विचित्रता में कलात्मक ऐन्द्रिक सुख देने की क्षमता तो हो सकती है , सत्यता सदैव नहीं होती। जो बात सौन्दर्य को आगे रखकर शिवत्व और सत्यत्व को पीछे रख कर चलती है, वह समाज के केवल कुछ ही लोगों को कुछ ही देर तक बाँध सकती है, बहुत देर तक नहीं।

हॉलीवुड का प्राथमिक ध्येय आपको विज्ञान पढ़ाना नहीं, आपका मनोरंजन करना है। लेकिन विज्ञान से लिये गये मनोरंजन के भी अपने जोखिम होते हैं। जो बिना एजुकेट हुए साइंस से एंटरटेन हुआ करते हैं, वे कॉन्सपिरेसियों और फ़न्तासियों के भ्रमजालों में उलझते हुए झूमा अथवा चौंका करते हैं। इसलिए ज्ञान से मनोरंजन की ओर बढ़ना, मनोरंजन से ज्ञान की ओर आने से कहीं अधिक सुरक्षित और श्रेयस्कर है। जो ऐसा करते हैं, ज्ञानवती कॉन्स्पिरेसियों उन्हें कम जकड़ती हैं। जो ऐसा करने से चूकते हैं, उन्हें पूरी दुनिया की हर समस्या में हॉलीवुडीय षड्यन्त्र-ही-षड्यन्त्र नज़र आते हैं।

यह महामारी भी बीत ही जाएगी। सभी-कुछ बीतता है, सुख की तरह दुःख भी। पर यह हमें जता रही है कि अनिश्चितता-अकुलाहट के दौर में एक समाज के तौर पर हम कितने अन्धविश्वासी, भ्रमजीवी और षड्यन्त्र-आस्थ हो जाते हैं। एक पैंडेमिक में आज भी वह शक्ति है कि इक्कीसवीं सदी के जगमग समाज को तार-तार करके यह सिद्ध कर दे कि हममें अब भी चौदहवीं-पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदियों का कितना अन्धकार, कटुता और वैमनस्य शेष है।

सभ्यताओं के भीतर छिपे बर्बर-बीजों का प्रदर्शन ही महामारियों का सबसे बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण हासिल है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here