इतिहास की अगर-मगर ! पुलवामा की त्रासदी!!

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अजहर मसूद से रिहाई का सौदा नकार देते, तो कल का पुलवामा नरसंहार न होता, हमारे जवान जीवित रहते

के. विक्रम राव/लखनऊ

नरेंद्र मोदी अभी भी उनको राजधर्म (2003) सिखानेवाले अटल-बिहारी वाजपेयी की पंक्ति, “रार नहीं ठानूँगा” को मन्त्र की भांति अलाप रहे हैं| वक्त का तकाजा है कि दूसरी पंक्ति “हार नहीं मानूँगा” को मोदी साकार करें| इतिहास साक्षी है कि यदि यह प्रथम भाजपायी प्रधानमंत्री 24 दिसम्बर 1999 को एक कैदी मोहम्मद अजहर मसूद से रिहाई का सौदा नकार देते, तो कल का पुलवामा नरसंहार न होता, हमारे जवान जीवित रहते| मगर अपने 75वें जन्मदिवस पर तोहफा अटलजी ने आतंकी मसूद को रिहा कर के दे डाला| भारत शर्मिंदा है, हत्यारा मसूद जिन्दा है| अटलजी का प्रारब्ध था, भारत ने भुगता|
अपने संस्मरण “मेरा देश, मेरा जीवन” (पृष्ठ 622) में गृहमंत्री लालचंद किशिनचन्द आडवाणी ने स्वीकारा कि वे मसूद की रिहाई के पक्ष में नहीं थे| मगर प्रधानमन्त्री के प्रमुख सचिव तथा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार 72-वर्षीय बृजेशचन्द्र मिश्र ने सरकार और आतंकी के बीच इस राष्ट्रघातक लेनदेन को अंजाम दिया| यही पंडित जी थे जिनके पिताश्री द्वारिका प्रसाद मिश्र ने इंदिरा गांधी को प्रधान मंत्री बनवाया था, मोरारजी भाई को निरस्त कराया था| अंत में कृतज्ञ इंदिरा ने ही उन डी. पी. मिश्र को पार्टी से निकाल बाहर किया था|
मसूद की रिहाई माँगनेवाले, भारतीय वायुयान को हाइजैक करनेवाले पाकिस्तानी आतंकी पकड़े जाते यदि काठमांडू से दिल्ली की राह पर अमृतसर हवाई अड्डे पर तेल भरने के लिये रुका उनका जहाज पकड़ लिया जाता| मगर 72-वर्षीय यह सुरक्षा सलाहकार दिसम्बर की सर्द रात को फुर्ती नहीं दिखा पाया| जहाज कांधार (तालिबान – नियंत्रित अफगानिस्तान) ले जाया गया| उसमें 160 यात्रियों को तीन हाइजैकर्स ने बीस करोड़ डालर और मसूद की रिहाई के एवज में छोड़ने की शर्त रखी थी| तभी प्रधानमंत्री आवास के भीतर घुसकर इन यात्रियों के रिश्तेदारों ने हंगामा किया| अटलजी सहम गये| आडवाणी के अनुसार कई विपक्ष के लोग (खासकर सोनिया कांग्रेसी) पाकिस्तानी आतंकवादियों की रिहाई हेतु प्रदर्शन कर रहे थे|
यदि अटल बिहारी वाजपेयी जैशे मोहम्मद के इस नरपिशाच मसूद को भारतीय जेल से बीस साल पूर्व ससम्मान रिहा न करते तो, यही मसूद मुम्बई (ताज होटल), पठानकोट, संसद भवन, उरी आदि में हिन्दुस्तानियों की लाशों का अम्बार न लगा पाता| मसूद, जो इस्लामी जम्हूरियते पाकिस्तान का मान्य राज्य अतिथि है, की घोषित मान्यता है कि “प्रत्येक मुसलमान का मजहबी कर्तव्य है कि भारत का खात्मा करे|” उसकी राय में कुरान में पैगम्बर-ए-इस्लाम ने बताया है कि काफ़िर का संहार लाजिमी फर्ज है|
मगर हम लखनऊवासी मौलाना खालिद मियां फिरंगी महली के कृतज्ञ हैं कि उन्होंने स्पष्ट शब्दों में मसूद की कड़ी भर्त्सना की| इस युवा ईमाम, ऐशबाग ईदगाह, के पितामह मौलाना अब्दुल बारी महात्मा गांधी के मेजबान थे| वे गाँधीवादी थे और पाकिस्तान की माँग को नकारते रहे| इन्हीं के कुटुंब के थे निजामुद्दीन जिन्होनें दो सदियों पूर्व विश्व का प्रथम इस्लामी शिक्षा का पाठ्यक्रम बनाया था| जिसमें तर्कशास्त्र, दर्शन, समाज विज्ञान आदि विषय शामिल थे| उन्हींने आदेश दिया था कि बकरीद पर गौवध पाप है| तो कहाँ खालिद फिरंगी महली, एक नेक अकीदतमंद, कहाँ इस्लाम का दुश्मन मियां मोहम्मद अजहर मसूद!
 
K. Vikram Rao, E-mail –k.vikramrao@gmail.com

कौन हैं लेखक के. विक्रम राव 

के. विक्रम राव ने पत्रकारों के लिए संघर्ष करते हुए पत्रकारिता की। प्रेस परिषद में रहकर मीडिया के नियमन जैसे कार्यों में भागीदारी की तो प्रेस सेंसरशिप के विरोध में 13 महीने तक जेल में भी गुजारे। श्रमजीवी पत्रकारों के वेतन के लिए सरकारों से लंबी लड़ाई लड़ी तो देश और विदेश में भारतीय मीडिया का लोहा भी मनवाया। ये कुछ बातें पहचान कराती हैं भारतीय श्रमजीवी पत्रकार फेडरेशन के अध्यक्ष के. विक्रम राव की। राजनीति शास्त्र से परास्नातक श्री राव को पत्रकारिता और संघर्ष विरासत में मिले। उनके पिता स्व. के रामा राव लखनऊ में पं. जवाहरलाल नेहरू द्वारा स्थापित ‘नेशनल हेराल्ड’ के 1938 में संस्थापक-संपादक थे।> > लाहौर, बम्बई, मद्रास, कोलकाला तथा दिल्ली से प्रकाशित कई अंग्रेजी दैनिकों में भी उन्होंने संपादन किया था। उन्हें ब्रिटिश राज ने 1942 में कारावास की सजा दी थी। आजादी के बाद पत्रकारिता ने एक लंबा अरसा गुजार दिया है। उसके स्वरूप में जमीन-आसमान का अंतर आ चुका है। उसमें पत्रकारों की स्थिति, संपादकीय ढांचा, प्रबंधन और सरकार से रिश्तों आदि हर एक क्षेत्र में बहुत कुछ बदल चुका है।
पत्रकारिता के क्षेत्र में आए इन बदलावों के लिए श्री राव एक हस्ताक्षर हैं। उनकी जुझारू प्रवृत्ति और हक के लिए हर स्तर तक जाने की जिद ही है जिससे पत्रकारिता क्षेत्र अपने में आए पूंजीवाद के तमाम दुर्गुणों के बावजूद आज एक विशिष्ट मुकाम पर है और आम आदमी के भरोसे को भी कायम रखे है। जब-जब पत्रकारिता में कोई विसंगति नजर आई, उसे दूर करने के लिए श्री राव हमेशा अग्रिम पंक्ति में नजर आए।
 
श्री राव पत्रकारिता लेखन और संगठन दोनों के क्षेत्र में भी अग्रणी रहे हैं। गद्यकार, संपादक और टीवी-रेडियो समीक्षक श्री राव श्रमजीवी पत्रकारों के मासिक ‘दि वर्किंग जर्नलिस्ट’ के प्रधान संपादक हैं। वे न्यूज के लिए चर्चित अमेरिकी रेडियो ‘वॉयस ऑफ अमेरिका’ (हिन्दी समाचार प्रभाग, वॉशिंगटन) के दक्षिण एशियाई ब्यूरो में संवाददाता रहे। वे 1962 से 1988 तक यानी पूरे 36 वर्ष तक अंग्रेजी दैनिक ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ (मुंबई) में कार्यरत थे। उन्होंने दैनिक ‘इकोनोमिक टाइम्स’, पाक्षिक ‘फिल्मफेयर’ और साप्ताहिक ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ में भी काम किया है।

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