जब हम आध्यात्मिक रहस्यों से भरी जगह: निधिवन गए

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1947

वृंदावन ही वह जगह है जहां श्रीकृष्ण ने राधारानी के साथ रास रचाई थी और यहीं उनका प्रेम आध्यात्मिक परिणति को प्राप्त हुआ। वृदावन प्रेम की धरती है। भगवान श्रीकृष्ण और राधा, श्रीकृष्ण और गोपियों के प्रेम ने इस धरती को सींचा है। कृष्ण यहां बंसी की मधुर तान छेड़ते थे और गोपियां उसकी आवाज पर खिंची आती थीं।

प्रियंका राय/पटना

कहते हैं, मनुष्य का जीवन ही एक यात्रा है जहाँ संसार रूपी मार्ग में वह यात्रीगण की भूमिका निभाता है। मनुष्य के जीवन की स्थानीय यात्रा की बात करें तो ये सीखने की भावना और ज्ञान पाने के मूलमंत्र की चाभी है। मनोरंजन के माध्यम से सीखना मनुष्य जीवन का एक अच्छा माध्यम है। हर दिन काम से हमें राहत देने के अलावा, एक शैक्षिक यात्रा हमारे मानसिक विचारों को समृद्ध करती है।

दशहरे की छूट्टियां बिहार-झारखंड-बंगाल में लम्बी होती हैं। मेरे ससुरजी की हार्दिक इच्छा व्रज धाम की थी। अतः पिछले साल की दुर्गा पूजा में ही मथुरा-वृंदावन की यात्रा की योजना बनी थी। पर कहते हैं, “जब तक उनका बुलावा नहीं आता, कोई कुछ नहीं कर सकता।” हमारी ‘पटना-कोटा’ ट्रेन अपने निर्धारित समय से देर होते-होते अंततः रद्द हो गई।
 
हमारी ये प्रथम वृजधाम की यात्रा सुख मनोरंजन व प्रबल हार्दिक इच्छा का मिश्रित रूप थी। हम सब इसी भावना से 14 अक्टूबर की शाम राजधानी एक्प्रेसस से अपनी यात्रा आरम्भ की। प्रातःकाल ही राजधानी अपने समयानुसार दिल्ली पहुंच गई। वहाँ से हमने एक निजी वाहन लेना उपयुक्त समझा और सीधे वृंदावन रवाना हुए। दिल्ली-मथुरा सड़क मार्ग से करीब 150 किलोमीटर की यात्रा की थकान हमारी प्री बुक होटल ‘क्रिधा रेसिडेंसी’ में आकर खत्म हुई। वृंदावन की आवो हवा यहाँ का स्वच्छ वातावरण, लोकजन और यहाँ का धार्मिक परिवेश मेरे मन को अत्यधिक भाया। चारों ओर सिर्फ शांति और सुकून ही थे। पूर्णतः ये हिन्दू बहुल क्षेत्र धार्मिक नगरी का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
होटल के मैनेजरों और कर्मचारियों ने अच्छे से स्वागत किया। सबसे अच्छी बात यहाँ के लोग बहुत सीधे, सहज और मधुरभाषी हैं। यहाँ लोग हेलो, एक्सकुज मी और ओ भाई साहब की जगह “राधे- राधे” बोलते हैं जो मुझे अति प्रिय लगा। दोपहर भोजन के उपरांत थोड़ा आराम कर हम सबने निधि वन जाने का फैसला किया। जिसे निधिवन-मधुवन- वृन्दावन के नाम से भी बुलाते हैं। पूरे वृंदावन में बैटरी रिक्शा यातायात का सुलभ साधन है। होटल के पास हर थोड़ी देर में यह आसानी से उपलब्ध है औऱ हम रहस्मयी निधिवन की ओर निकल पड़े।
यू तो वृंदावन बहुत शांत प्रदेश है पर कुछ क्रिमिनल्स ने यहां आतंक मचा रखा है। जी हां, “क्रिमिनल्स ऑफ वृन्दावन” यहाँ के बेख़ौफ़ हनुमान की गुप्तचर वानरी सेना हैं। इनका आतंक मत ही पूछिये। मैं सोचती थी इंसान ही स्वाद का तेज होता है पर ये सेना भी कुछ कम नही। बाहरी चिप्स, बिस्किट, फ्रूटी लेकर ही ये शाांत होते  है। हुआ कुछ यूं कि निधिवन में प्रवेश करते ही माता जी का चश्मा एक वानर उड़ा लेकर ऊंची दीवार पर जा बैठा, सबने कहा: “अरे जल्दी से फ्रूटी दिलाओ, तभी वापस करेंगे”…फिर क्या जब तक फ्रूटी दिलाई तब तक चश्मे का काम तमाम था। पर, ये तो कुछ नही था। आगे भीड़ इकट्ठी थी। एक दंपति के 17 हज़ार रुपये एक वानर ले गया था। दोनों उदास थे। थोड़ी देर में वॉयलेट और एटीएम कार्ड तो मिल गए पर कैश नही मिले। तो ये थी क्रिमिनल्स ऑफ वृजधाम की लघु कथा।
वहाँ हमें एक गाइड मिला जो हमें निधि वन के अंदर लेकर गया। यहाँ के गाइड ज्यादातर शर्मा सरनेम के थे जो स्वयं को ब्राह्मण कुलवंश का बता रहे थे। कहा जाता है निधिवन आध्यात्मिक रहस्यों से भरी जगह है। पूरे वन में वृंदा के पेड़ अर्थात तुलसी के वृक्ष हैं जो सभी जोड़ों में हैं जिन्हें राधा-कॄष्ण का द्योतक माना जाता है और इसकी सारी लताएं गोपियाँ है जो एक दूसरे की बाहों में बाहें डाले खड़ी है। जब रात में निधिवन में राधा रानी जी, बिहारी जी के साथ रास लीला करती है तो वहाँ की लताये गोपियाँ बन जाती है और फिर रास लीला आरंभ होती है। इस रास लीला को कोई नहीं देख सकता, दिन भर में हजारों बंदर, पक्षी,जीव जंतु निधिवन में रहते है पर जैसे ही शाम होती है,सब जीव जंतु अपने आप निधिवन से चले जाते है एक परिंदा भी फिर वहाँ पर नहीं रुकता। रास लीला को कोई नहीं देख सकता क्योकि, रास लीला इस लौकिक जगत की लीला नहीं है रास तो अलौकिक जगत की “परम दिव्यातिदिव्य लीला” है कोई साधारण व्यक्ति या जीव अपनी आँखों से देख ही नहीं सकता। और जिसने भी देखने की कोशिश की वो या तो पागल हो गया या अपने प्राणों से गया।
जो बड़े-बड़े संत है उन्हें निधिवन से राधारानी जी और गोपियों के नुपुर की ध्वनि सुनी है।
जब रास करते- करते राधा रानी जी थक जाती है तो बिहारी जी उनके चरण दबाते है। और रात्रि में शयन करते है आज भी निधिवन में शयन कक्ष है जिसे “रंग-महल” कहते हैं। जहाँ पुजारी जल का पात्र, पान,फुल और प्रसाद रखते है, और जब सुबह पट खोलते हैं तो सब कुछ बिखरे हुए मिलते है। यहाँ से लोग श्रृंगार का सामान खरीदते हैं। मैंने भी चढ़ावे वाले श्रृंगार का सामान लिया।
आगे बढ़ने पर ‘ललिता कुंड’ देखने को मिला। राधिका जी की अति प्रिय सहेली ललिता और विशाखा की भी प्रतिमा यहाँ विद्यमान है। कहते हैं एक बार जब ललिता को प्यास लगी तो आस-पास जल संसाधन ना होने की वजह से मुरलीधर ने अपनी मुरली से ही इस जलकुंड को खोदकर बनाया था और उनकी प्यास बुझाई थी, तबसे इसका नाम ललिता कुंड है।
आगे ‘वंशी चोर राधा रानी’ का भी मन्दिर है। कहते हैं राधा रानी मुरलीधर की वंशी से परेशान होकर उनकी मुरली चुरा लेती हैं जिसकी वजह से उन्हें वंशी चोर राधा पुकारा जाता है। निधिवन की माटी को माथे तिलक लगाने की भी परम्परा यहाँ है।
ये जगह काफी सम्मोहित करने वाली है। हमारे इष्ट की लीलाभूमि और तपोभूमि है। सबसे ख़ास बात ये प्रेमभूमि है। यहाँ के कण-कण में राधा-कृष्ण का वास है। वृंदावन ही वह जगह है जहां श्रीकृष्ण ने राधारानी के साथ रास रचाई थी और यहीं उनका प्रेम आध्यात्मिक परिणति को प्राप्त हुआ। वृदावन प्रेम की धरती है। भगवान श्रीकृष्ण और राधा, श्रीकृष्ण और गोपियों के प्रेम ने इस धरती को सींचा है। कृष्ण यहां बंसी की मधुर तान छेड़ते थे और गोपियां उसकी आवाज पर खिंची आती थीं।
यहीं से थोड़ी दूर पर स्थित नंद-महल हमारा गाइड हमें लेकर गया। इस बीच बाजारों का दृश्य भी मनभावन था, चारों ओर कान्हा जी और उनसे जुड़ी वस्तुयें बाज़ार की शोभा बढ़ा रहे थे। हस्तशिल्प के सामान खासकर भगवान कृष्ण से जुड़े वस्त्र व आभूषण यहां अधिसंख्य दुकानों में मिलते हैं। मैंने भी यहाँ से कान्हा जी के नए-नए वस्त्र व आभूषण लिए साथ ही यहाँ राधा रानी की चूड़ियां भी प्रसिद्ध हैं। मुझे दुकानवाले ने कहा,- ” राधा-रानी की चूड़ियां जरूर ले जाना, मैंने भी सुंदर प्यारी-प्यारी वो चूड़ियां खरीद ली और वहाँ से निकल नंद-महल की ओर पहुंची। नंद-महल में कई वर्ष पुराना एक वृक्ष है जो राधा-कृष्ण की एक पुरातम धरोहर है। वृक्ष की दोनों ओर से राधा-कृष्ण के हाँथ स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं।
यहाँ से निकलने के बाद हमसब अंग्रेजों के मंदिर यानी इसकॉन टेम्पल गए, जी हाँ लोग इसे अंग्रेजों के टेम्पल से भी इस जगह को पुकारते हैं। यहाँ इस बात का एहसास हुआ कि भारतीय ही नहीं विदेशी युवक-युवतियां श्रीकृष्ण के प्रेमरस में डूबकर आज भी कृष्ण को यहां के गली-कूचों, खेत-खलिहानों, कुंज लताओं और यमुना तट पर खोज फिरते हैं। इस मंदिर की खूबसूरती देखते बनती है। सब कुछ अच्छे से तरीक़े से गठित है। यहाँ शाम की आरती “हरे रामा हरे कृष्णा, राधे राधे” की गूंज से पूरा परिवेश मंत्रमुग्ध था। विदेशी बालाएं भारतीय परिधानों में राधे नृत्य में मग्न थी। और सबकी ओर एक सुखद मुस्कान से अपनी ख़ुशी बिखेर रही थी।
आगे, अब हम सब बहुत थक गए थे और देर संध्या पर कहीं दूसरी जगह जाने से भी कोई लाभ नही था। अतः हम सब वापस क्रिधा रेसिडेंसी की ओर रात्रि विश्राम के लिए रवाना हुए। वहां पहुंच रात्रि भोजन लिया, एक बात यहाँ कहना चाहती हूं, वृन्दावन का भोजन अमृत समान था। खाने के आखरी निवाले तक इसका स्वाद बरक़रार था। क्यों ना हों, भोजन प्रिय कान्हा जी को व्यंजन अतिप्रिय था तो यहाँ के व्यंजनों में स्वाद का होना आश्चर्य की बात नही।
 
अगली सुबह आंख खुलते ही यहाँ का गुलाबी मौसम और होटल का खुला परिसर मन को आनंदित कर गया। हमसब तैयार होकर सबसे पहले ‘बांके- बिहारी’ जी के दर्शन को आतुर थे। पुनः हमने बैटरी रिक्शा लिया और वृंदावन के बाजार गलियों से होते हुए मंजिल की ओर अग्रसर थे। एक बात जिसने मुझे बहुत चम्भित किया वो महिलाओं का पूरा घूंघट लेना था। ज़्यादातर महिलाओं को घूंघट में ही देखा। खैर, मन्दिर परिसर में पहुंच कर सुकून की अनुभूति हुई। यहाँ पर कर्णप्रिय जादुई बांसुरी की ध्वनि मन को प्रफुल्लित कर रही थी। बड़े शांत भाव से हमने बांके बिहारी जी के दर्शन किये और भोग का प्रसाद फूल माला इत्यादि इन्हें समर्पित किये। यहाँ मन्दिर में बार-बार पर्दा किया जाता है। इसकी वजह ये है कि बांके- बिहारी बड़े उदार व दयालु है अपने भक्तों की भक्ति से सम्मोहित होकर उनके साथ चल पड़ते हैं। इस मंदिर के प्राँगण में एक कान्हा भक्त बांसुरी की जो मधुर तान छेड़े रखा था वो मन को मोह रहा था। मथुरा-वृन्दावन में दोपहर 11 बजे के बाद मंदिर परिसर बन्द हो जाते हैं और पुनः 4 बजे ये खुलते हैं। इसलिए अब हम भी नाश्ता करके होटल में कुछ देर आराम कर पुनः इस धाम की सैर को निकल लिए।
वरात्रि का समय और माता रानी के दर्शन की इक्छा सभी को होती है। इसलिय हम सब वैष्णों माता के दरबार में पधारें। वृन्दावन में वैष्णो माँ का सुंदर दरबार सजा है। यहाँ अच्छी संख्या भक्तजनों की उमड़ी थी। पूरी चौकस निगरानी के तहत हमने अंदर प्रवेश किया, हम सब भी अंदर के अति सुंदर परिवेश को देख चकित और प्रसन्न थे। माता रानी के शेर पर सवार वाली भव्य प्रतिमा देखते बनती है। मुझे तो यहाँ ‘बाहुबली’ फिल्म का सेट फीका लग रहा था। काफी भव्य नजारा है। माता रानी का आशीर्वाद लेकर हम आगे की ओर रुख किये।
प्रियाकान्त जू हमारा अगला पड़ाव था। यह मंदिर भगवान श्री कृष्ण जी और उनकी अ‍राध्य शक्ति राधिका जी को समर्पित है जहाँ भगवान श्रीकृष्ण और राधा की सुन्दर व मनमोहन विग्रह स्थापित है। इस मंदिर का नाम का राधा व श्रीकृष्ण जी के आधार पर रखा गया है प्रिया यहां श्री राधा है और कान्त यहां भगवान श्रीकृष्ण है। प्रियाकान्त जू मंदिर कमल के फुल कि तरह बनाया गया है। मंदिर सडक के किनारे बनाया गया है तथा मंदिर सडक से काफी ऊँचाई पर है मंदिर के दोनो तरफ पानी के कुण्ड है। जिसमें फव्वारे भी लगाये गये है। यह मंदिर नवीन भारतीय कला और वास्तुकला में एक पुनर्जागरण को दर्शाता है। इसका निर्माण देवकी नंदन ठाकुर जी द्वारा कराया गया है।
 
अब आगे बात करूँगी वृन्दावन के मशहूर स्थल प्रेम मन्दिर की। प्रेम मन्दिर को देखने वाले इस बात से सहमत होंगे कि, इसकी तारीफ जितनी की जाए कम होगी। खासकर संध्या बेला में रंगीन रोशनी से जब ये स्थल नहाई होती है अपने सुंदर रूप की चरम गाथा बयान करती है। हम सब प्रेम मन्दिर के पास ही वृन्दावन की मीठी प्रसिद्ध लस्सी व कुछ जलपान का आनद उठा कर इस पवित्र स्थली की ओर रुख किये। प्रसिद्ध प्रेम मन्दिर का निर्माण जगद्गुरु कृपालु महाराज द्वारा भगवान कृष्ण और राधा के मन्दिर के रूप में करवाया गया है। मन्दिर के निर्माण मे 11 वर्ष का समय और लगभग 100 करोड़ रुपए की धन राशि लगी है। इसमें इटैलियन करारा संगमरमर का प्रयोग किया गया है और इसे राजस्थान और उत्तरप्रदेश के एक हजार शिल्पकारों ने तैयार किया है। मन्दिर प्राचीन भारतीय शिल्पकला के पुनर्जागरण का एक बेहतरीन नमूना है।
 
अपने हसीन लम्हों को कैमरे में कैद कर हम वापस होटल की ओर हो लिए, क्योंकि अगली सुबह एक और लम्बी यात्रा जो करनी थी। जिसमें नंद गांव, बरसाना, गोवर्धन, गोकुल और मथुरा शामिल थे। समूचे दिन की हमारी यात्रा थी तो हमने होटल से किराए पर इनोवा कार बुक कर ली। और सभी जन पूरी उत्सुकता से सबसे पहले नंद गांव के लिये रवाना हुए। नंदगाव भगवान श्रीकृष्ण और माता यशोदा के यहां लालन- पालन होने के कारण प्रसिद्ध है। कहते हैं कि तांडल ऋषि ने कंस को श्राप दिया था, कि यदि तुम्हारा कोई राक्षस या दूत नन्दीश्वर पहाड़ी पर गया तो पत्थर का बन जाएगा। इसलिए कंस के कहर से सुरक्षा पाने के लिए नन्दबाबा नन्दीश्वर पहाड़ी पर चले आए। इस तरह एक पूरा गांव आबाद हो गया। वैसे अब यहाँ जट समाज की संख्या अत्यधिक है । यहाँ ऊंची सीढ़ियों को चढ़कर हमने यहाँ के पावन मंदिरों के दर्शन किये। मन मे आस्था का सैलाब उमड़ा हुआ था। और इसी के साथ हम राधिका जी की नगरी ‘बरसाना’ की ओर चल पड़े।
राधा और श्रीकृष्ण के अमर प्रेमी होने का गौरव बरसाना में देखते बनता है। यहां पर विश्व भर में प्रसिद्ध होली खेली जाती है। नंदगांव के पुरुष फाल्गुन एकादशी को बरसाना में होली खेलने आते हैं। दूसरे दिन बरसाना वाले नंदगांव में जाते हैं। यहां की लठमार होली देखने के लिए देश-विदेश से लोगों का तांता लगा रहता है। स्त्रियां, पुरुषों को लाठियों से पीटती हैं और पुरुष ढाल से उनके प्रहार को बचाते हैं। यहाँ दूर पहाड़ियों पर राधिका जी का सुंदर मन्दिर स्थित है।
अब चलते हैं 7 कोस की यात्रा पर, अरे घबराइए मत मैं “गोवर्धन” की बात कर रही हूं।
गोवर्धन पर्वत, बरसाना से 20 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। इसे पर्वतराज के नाम से भी जाना जाता है। प्रत्येक महीने की अमावस्या व पूर्णिमा की श्रद्धालु गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा व पूजा करते हैं। गगनभेदी जयकारों के साथ-साथ 7 कोस की परिक्रमा का मनभावन दृश्य उपस्थित होता है। हमने यहाँ पवित्र “मानसी गंगा” के दर्शन भी किये। मन्दिर के बाहर गोवर्धन पर्वत को उँगली पर उठाए श्री कृष्ण जी की विशाल मूरत देखते बनती है। यहाँ पर आकर बहुत सुखद अनुभूति हुई।
अब हम आ पहुंचे “गोकुल धाम” जहाँ वासुदेव जी ने मनमोहना को कंस से छुपाकर नंद-यशोदा के घर छिपा दिया था। गोकुल’ प्रसिद्ध हिन्दू धार्मिक स्थल है। भगवान श्रीकृष्ण तथा बलराम ने अपनी बाल्यवस्था के कुछ वर्ष यहाँ व्यतीत किये थे। यह मथुरा से 15 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। गौ, गोप, गोपी आदि का समूह वास करने के कारण महावन को ही ‘गोकुल’ कहा गया है। हमारे गाइड ने अंदर प्रवेश करने से पहले ही कहा खूब हंसते हुए प्रसन्न मन से प्रवेश करने को और साथ में ” बोलो राधे रानी की जय, बंशी वाले की जय” का जयकारे लगाने को कहा। अंदर गलियों से होते हुए हम प्रवेश कर रहे थे। और गाइड हमें निरन्तर कान्हा की बाल लीलाओं के बारे में बताता रहा। यहाँ हमें ये भी बताया गया कि, ये जगह पर माता-पिता को साथ लाने से पूरे तीर्थ स्थल पर जाने इतना पुण्य मिलता है। अंदर कान्हा की पलने पर झूलने वाली विग्रह विद्यमान थी। हमने भी कन्हैया को झूला झुलाया। और उनको प्रिय माखन-मिश्री का भोग अर्पित किया।
हम दोपहर के भोजन के लिये मथुरा आ पहुंचे। और मथुरा नगरी के स्वादिष्ट भोजन का लुत्फ उठाया।
यमुना के बगैर मथुरा की पहचान अधूरी है। कृष्ण के जन्म से लेकर शहर के इतिहास और भूगोल तक मथुरा की संस्कृति में हर स्तर पर यमुना नदी का विशेष महत्व है। यहां कई घाट हैं। कुछ विशेष पर्वो पर यहां स्नान करने की प्रथा है। यहां के कुल 25 घाटों में विश्राम घाट, गणेश घाट, कृष्ण गंगा घाट, सोमतीर्थ घाट, घंटाघरण घाट आदि प्रमुख हैं। विश्राम घाट को सबसे महत्वपूर्ण घाट माना जाता, क्योंकि कंस का वध करने के बाद श्रीकृष्ण ने यहीं आकर विश्राम किया था।
अब हम सबसे प्रमुख स्थली कृष्ण जन्म भूमि आ पहुंचे। कृष्ण जन्मभूमि में काफी पुलिस दिखी, हर जगह पहरा था, व्यवस्था काफी अच्छी थी सुरक्षा प्रबंधो के लिए यह जरुरी भी था । सख्त तलाशी के बाद अन्दर प्रवेश किया। मंदिर बेहद भव्य था, श्री कृष्ण जन्मभूमि देख अच्छा लगा, मन भक्ति से भर उठा। पूरे बृजधाम की यात्रा में मैंने विदेशी पर्यटकों के अतिरिक्त अधिकांशतः बंगाली, दक्षिण भारतीय व राजस्थानियों की अच्छी संख्या को नोटिस किया। हमें भी प्रायः सब बंगाली ही समझ रहे थे। फिर हमने बताया हम बिहार, पटना से आये हैं तो एक ने कहा ;-” लालू जी के तरफ से आये हो” और वहाँ ठहाकों की गूंज, गूंज उठी। जन्मभूमि में प्रवेश कर गर्भगृह और कंस के कारागृह को देखा और इसके छत पर चढ़कर पूरे मथुरा शहर के दीदार किये। सटे हुए एक प्राचीन गोपाल जी के मंदिर भी हम सब गए। धार्मिक माहौल में बच्चे भी ये सब देखके बड़े खुश थे।
अब शाम होने वाली थी और हम सब द्वारिकाधीश के दर्शन को आतुर थे। हमारी इनोवा द्वारिकाधीश के पार्किंग जोन में आ रुकी। यहाँ से मन्दिर की दूरी 2 km थी। यहाँ से यातायात के लिये रिक्शा और बैटरी रिक्शा के साधन उपलब्ध थे। हमने बैटरी रिक्शा लिया पर हमें रिक्शा लेना चाहिये था क्यूंकि, बैटरी रिक्शा थोड़ी दूर आकर रुक जाती है क्योंकि आगे उसका प्रवेश निषेध था। अब हम सबकी पैदल यात्रा आरम्भ हुई। उस दिन मैंने अपनी बाटा वाली सैंडल को छोड़कर हाई हील्स पहन रखी थी मुझे असल तीर्थ यात्रा वाली कठिनाई जो झेलनी थी। वैसे भी किसी ने सही कहा है कि “बिना पैरों को मेहनत कराए तीर्थ यात्रा सम्भव नहीं है।” पैरों की स्थिति तो मैं ही जान रही थी। उसी समय मैंने प्रण कर लिया आगे की यात्रा सिर्फ “बाटा वाली सैंडल” में होगी। आखिर यूंहीं इतनी पुरानी और भरोसेमंद कम्पनी थोड़े ना है। उस वक़्त इसका विज्ञापन भी याद आ गया। खैर, बाजार से गुजरते हुए पैदल यात्रा भी यादगार ही रही।
श्रीद्वारकाधीश मन्दिर मथुरा नगरी के बीचोबीच, यमुना नदी के किनारे पर स्थित है। द्वारकाधीश मन्दिर की भव्यता देखते ही बनती है। मन्दिर मैं सीढ़ियों से ऊपर चढ़ते ही भगवान श्री द्वारकाधीश जी महाराज के दर्शन होते है। वहां पहुंचने पर एक व्यक्ति हमें नाव से पूरा घूमते हुए द्वारिकाधीश के दर्शन करने को प्रेरित करने लगे। हमने कहा,:;” भैया शाम हो चुकी है, अब रहने दो”…तब तक उधर से लोगों की आवाज सुनाई दी :;” जल्दी करो पट बन्द होने वाला है” मैं सीढ़ियों पर दौड़ती हुई चढ़ने लगी, जबकि मेरे पैरों का बुरा हाल था। ये पल ‘देवदास’ फिल्म के क्लाइमेक्स जैसा था। जैसे ही सीढयों से ऊपर पहुंची कृष्ण मुरारी के एक झलक को देख पाई और मन्दिर का पट बन्द हो गया जो डेढ़ घण्टे बाद खुलने वाला था। हम सब थोड़ी देर इस मंदिर की भव्यता को निहारते रहे। यह मन्दिर अपने सांस्कृतिक वैभव कला एवं सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध है। अंदर रंगीन सीसे की शिल्पकारी से बना शीश मन्दिर अपनी सौंदर्यता के चरम पर दिख रहा था।
यहाँ से निकलने के बाद हमने अपनी गलती को सुधारते हुए रिक्शा लिया और उस गलियों से निकल पड़े। रास्ते में हमने मथुरा की लज़ीज़ रबडी का आंनद उठाया। अमृत समान रबड़ियों के स्वाद ने हमें और भी ताजा कर दिया। हम सब पार्किंग जोन में लगी अपनी इनोवा पर बैठे और सीधे वृंदावन धाम की ओर चल पड़े। वृन्दावन में प्रवेश करते हमने पगला बाबा मंदिर के दर्शन किये। इसकी सौंदर्यता भी अनुपम है। आगे हमें रंगजी मन्दिर दिखा।
रंगजी मंदिर वृंदावन के कुछ उन गिने चुने मंदिरों में से एक है जो श्रेष्ठ द्रविड वास्तुशिल्प शैली में बना है। इसे 1851 में बनवाया गया था और इसमें मुख्य देवता के रूप में श्री रंगनाथ (विष्णु देव) विराजमान हैं। मंदिर की दीवारें काफी ऊंची है। इस मंदिर परिसर में दोनों ओर 42-42 पुजारियों के क्वाटर है। वृंदावन की पावन धरती इंसान को आस्था से भर देती है।
हिंदू धर्म में 84 कोस की यात्रा का विशेष महत्व है। माना जाता है कि, 84 कोस की यात्रा करने से 84 लाख योनियों से मुक्ति मिलती है। यदि आपने अब तक चार धाम और अन्य धार्मिक स्थलों की यात्रा नहीं की है तो ब्रज मंडल के 84 कोस में सारे तीर्थस्थल मौजूद हैं। इन स्थलों के दर्शन करके आपको वही फल प्राप्त होेगा जो चार धाम को यात्रा से प्राप्त होता है।
दैनिक जीवन के एक निश्चित कार्यक्रम के बाद मनुष्य को विशेष परिवर्तन की आवशयकता पड़ती है। कुछ लोग विशेष प्रकार के ऐतिहासिक स्थानों की यात्रा, कुछ लोग अनेक प्रमुख शहरों की यात्रा तथा कुछ लोग धार्मिक प्रवृत्ति के होते हैं और धार्मिक स्थानों, मंदिरों की यात्रा को महत्व देते हैं। यात्रा निश्चय ही मनुष्य को आनन्द प्रदान करती है तथा ज्ञानार्जन करने का साधन भी बनती है। क्योंकि यात्रा करते हुए वह सभी कुछ अपनी आंखों से देखता है। प्राकृतिक दृश्य मन को लुभाते हैं, नये स्थान, अपरिचित लोग, बदले हुए वातावरण से उसे प्रसन्नता मिलती है। प्राचीन काल से ही ये धारणा है कि, मनुष्य का ज्ञान और इक्छा सीमित नहीं होता अपितु वह गतिशील और अनंत है।
मेरे यात्रा संस्मरण की ये पहली क़िस्त मैं प्रस्तुत कर रही हूं, अगली कड़ी जल्द ही आप सबके समक्ष प्रस्तुत करूँगी। प्रेम से बोलो:
“जय श्री राधे- जय श्री कृष्ण”

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