सपनों के सौदागर: बिमल रॉय
बिमल रॉय हिंदी सिनेमा के इतिहास में वह नाम है जिसने बतौर निर्माता निर्देशक प्रोग्रेसिव सिनेमा की सोच सबसे पहले रखी ज़माने के सामने। ढाका में जन्मे बिमल दा ने ऐसी ऐसी फिल्में बनायीं जिसने यह बात साबित कर दी कि फिल्में सिर्फ मनोरंजन का ही साधन नहीं बल्कि समाज का आईना होती हैं।
अभिषेक भट्ट/लेखक
ये बात तो सभी जानते हैं कि जब हिंदुस्तान में सिनेमा की शुरुआत नहीं हुई थी तब नाटक नौटंकी, नाच, गाना बजाना ही मनोरंजन के साधन हुआ करते थे लेकिन बहुत कम लोग ये बात जानते हैं कि उस ज़माने में भी मुम्बई में थियेटर कल्चर आ चुका था जिसमें कहानियों को रंगमंच पर बिल्कुल आज की फिल्मों की तरह मेलोड्रामा अंदाज़ में दर्शकों को दिखाया जाता था।
आनेवाले समय में फ़िल्म जगत ने भी उसी थिएटर शैली में मनोरंजन से भरपूर फिल्में बनानी शुरू की और खूब मुनाफा कमाया। हालांकि उस शुरुआती दौर में भी कुछ फ़िल्म निर्माता निर्देशक ऐसे थे जो फिल्मों को सिर्फ मनोरंजन का माध्यम न समझ सच दिखाने का जरिया मानते थे। ऐसे ही एक निर्देशक थे बिमल रॉय।
बिमल रॉय हिंदी सिनेमा के इतिहास में वह नाम है जिसने बतौर निर्माता निर्देशक प्रोग्रेसिव सिनेमा की सोच सबसे पहले रखी ज़माने के सामने। ढाका में जन्मे बिमल दा ने ऐसी ऐसी फिल्में बनायीं जिसने यह बात साबित कर दी कि फिल्में सिर्फ मनोरंजन का ही साधन नहीं बल्कि समाज का आईना होती हैं।
दो बीघा ज़मीन, परिणीता, यहूदी, देवदास, मधुमती,सुजाता, बन्दिनी आदि उनकी बनाई फिल्मों ने ना सिर्फ उनको अंतरराष्ट्रीय ख्याति हासिल करने में मदद की बल्कि यह फिल्मे आज के भी उभरते निर्देशकों के लिए प्रेरणास्रोत हैं।
3 इडियट्स,पीके, संजू और मुन्नाभाई सीरीज़ जैसी हिट फिल्मों के आज के निर्माता विधु विनोद चोपड़ा ने विद्या बालन को ले बिमल दा की परिणीता दोबारा बनाई। वहीं आज के ज़माने के ही मशहूर निर्माता निर्देशक संजय लीला भन्साली ने भी शाहरुख खान को ले बिमल दा की देवदास बनाई। दोनों ही फिल्में वैसे तो शरतचंद्र के उपन्यासों पर आधारित थीं लेकिन इन दोनों फिल्मों के नए वर्ज़न में भी बहुत से सीन पुरानी बिमल दा की बनाई फिल्मों के फ्रेम-टू-फ्रेम कॉपी थे।
बिमल दा अत्यंत ही संवेदनशील इंसान थे जो जीवन की छोटी सी छोटी घटना को भी बड़ी बारीकी से देखते थे। उनकी यही खासियत उनकी फिल्मों में भी दिखती है। चाहे उनकी फिल्म “दो बीघा ज़मीन” हो जिसमें एक खुद्दार ग्रामीण इंसान के किसान से मजदूर बन जाने की दर्दनाक दास्तान हो या फिर “सुजाता” जो समाज के जात पात के दायरे को दरकिनार कर एक ब्राह्मण युवक औऱ दलित युवती के विवाह को सामाजिक सहमति दिलवाती दिखी सबमें सम्वेदनाओं का अनोखा संसार दिखता था।
अपने फिल्मी सफ़र की शुरुआत बिमल दा ने बतौर फ़िल्म सिनेमाटोग्राफर से की। कोलकत्ता में उन्होंने कई बांग्ला व हिंदी फिल्मों की फोटोग्राफी की। 40 के दशक में जब बंगला फ़िल्म उद्योग मंदी की मार झेल रहा था तब वे भी कई बांग्ला फ़िल्म निर्देशकों के साथ बम्बई आ गए।
हिमांशु रॉय की फ़िल्म कम्पनी बॉम्बे टॉकीज की कई फिल्मों के लिए उन्होंने सिनेमाटोग्राफी की। बाद में बॉम्बे टॉकीज के लिए ही अपनी पहली फ़िल्म बनाई “माँ”। इससे पहले भी वे बांग्ला फ़िल्म “उदेयर पाती” बना चुके थे।
लेकिन उन्हें सफलता मिली तब जब साल 1952 में उन्होंने अपनी फ़िल्म कम्पनी “बिमल रॉय प्रोडक्शनस” की स्थापना की और साल 1953 में आई उनकी शानदार फ़िल्म “दो बीघा ज़मीन”।
दो बीघा जमीन, परिणीता आदि उनकी फिल्मों के चलते बीच में ऐसा कहा जाने लगा कि बिमल रॉय सिर्फ यथार्थवादी फिल्में ही बना सकते हैं। बिमल दा ने तब बतौर निर्देशक अपनी सार्वभौमिक छवि भी दुनिया को दिखाई की वह हर तरह की फिल्में बना सकते हैं। उनके द्वारा निर्देशित पुनर्जन्म पर आधारित मधुमती और यहूदी बॉक्स ऑफिस पर बेहद कामयाब हुई।
मधुमती के गाने “सुहाना सफर और ये मौसम हसीं”, “आजा रे परदेसी”, “घड़ी घड़ी मोरा दिल धड़के”, “दिल तड़प तड़प के कह रहा है आ भी जा” आज भी अच्छा संगीत सुननेवाले लोगों को बखूबी याद हैं।
इन फिल्मों से बिमल दा की शोहरत बहुत बढ़ी और उस दौर के बड़े निर्देशकों जैसे राज कपूर, गुरु दत्त, मेहबूब खान जैसे बड़े नामों में उनका नाम भी शुमार हो गया।
बिमल दा की फ़िल्म “देवदास” ने तो दिलीप कुमार को वो छवि दी कि वो फ़िल्म इंडस्ट्री के ट्रेजेडी किंग बन गए।फ़िल्म का एक डायलॉग “कौन कम्बख़्त बर्दाश्त करने के लिए पीता है” आज भी बहुत लोकप्रिय है दिलीप साब के साथ।
बतौर निर्माता निर्देशक बिमल रॉय की आखिरी फ़िल्म थी “बन्दिनी” जो की क़त्ल के इल्ज़ाम में जेल में कैद एक औरत की कहानी थी। इस फ़िल्म का गुलज़ार साब का लिखा गीत “मोरा गोरा रंग लई ले…” आज भी टी वी चैनल्स पर अक्सर दिखाया जाता है।
बिमल रॉय एक महानदी थे जिससे कई और महान धाराएं निकलीं जिन्हें हम हृषिकेश मुखर्जी, बासु भट्टाचार्य औऱ गुलज़ार के रूप में जानते हैं। इन सब का शुरुआती मार्गदर्शन बिमल दा ने ही किया था।
साल 1966 में कैंसर के कारण बिमल दा की मृत्यु हो गयी। उनके बहुत अच्छे दोस्त माने जाते थे गुरुदत्त जिन्होंने उनके बारे में कहा था कि,”भारतीय सिनेमा में जब भी सामाजिक भेदभाव का अंत करने वाली सम्वेदनाओं से भरपूर औऱ यथार्थवादी फिल्मों का ज़िक्र होगा बिमल रॉय की फिल्मों का नाम सबसे पहले लिया जाएगा।”
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