सपनों का सौदागर: राज कपूर

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पचास के दशक में ‘बरसात’, ‘बूट पॉलिश’ जैसी फिल्मों ने राज कपूर की फ़िल्म कंपनी को वालीवुड में स्थापित कर दिया। नर्गिस के साथ फ़िल्म ‘बरसात’ में खूबसूरत सीन से न सिर्फ मोहब्बत को फिल्मों ने एक नया आयाम दिया, बल्कि आरके प्रॉडक्शंस को पहचान दिलाई।

अभिषेक भट्ट/लेखक
साल था 1948। आज़ाद भारत के एक साल पूरे हुए थे। ऐसे में पेशावर से मुंबई आया एक नौजवान जिसने कुछ ही फिल्मों में बतौर एक्टर रोल किया था और जो खुद की पसंद की आजाद ख़याल फिल्में बनाना चाहता था ने महज़ 24 साल की उम्र में अपनी फिल्म कम्पनी खोल डाली।
 
जी हाँ, आज हम बात कर रहे हैं हिंदी सिनेमा के पहले “शोमैन” राज कपूर की।
 
राज कपूर हिन्दी सिनेमा के हीरो पृथ्वीराज कपूर के बड़े बेटे थे, लेकिन पृथ्वीराज ने उन्हें ‘लॉंच’ नहीं किया। राज कपूर ने अपने फ़िल्मी सफर की शुरुआत उसी दौर के अन्य निर्देशक केदार शर्मा के साथ क्लैपर ब्वॉय के तौर पर की थी।
 
युवा राज कपूर की एक आदत थी की राज फिल्म के सेट पर क्लैप देने के लिए अपने बाल संवार कर कैमरे के सामने पोज देते थे। इसी दौरान एक बार उनकी गलती से फिल्म के हीरो की दाढ़ी क्लैपरबोर्ड में फंस गई अौर इसके जवाब में केदार शर्मा ने पूरी यूनिट के सामने राज कपूर को एक ज़ोरदार थप्पड़ लगा दिया था। तब राज़ साब ने कसम खाई की वो खुद की फ़िल्म कम्पनी बहुत जल्द शुरू करेंगे। हालांकि इस थप्पड़ वाली घटना के बाद केदार शर्मा ने ही राज साब को एक हीरो के रूप में पहला ब्रेक दिया था।
 
अपनी फिल्म प्रोडक्शन कम्पनी आर के फिल्म्स एंड स्टूडियोज़ में उन्होंने अपने द्वारा अभिनीत व निर्देशित पहली फ़िल्म बनाई आग।
 
फ़िल्म बहुत अच्छी थी लेकिन थोड़ी अलग होने के कारण अच्छा व्यवसाय नहीं कर पाई।
 
आर के फिल्म्स की शुरूआती असफलता के बाद ‘बरसात’, ‘बूट पॉलिश’, ‘जागते रहो’ और ‘श्री 420’ जैसी राज साब की फिल्में बेहद सफल रहीं।
 
पचास के दशक में इन फिल्मों ने राज कपूर की फ़िल्म कंपनी को सिनेमा की दुनिया में स्थापित कर दिया। नर्गिस के साथ फ़िल्म ‘बरसात’ में राज कपूर ने मधुर गानों और खूबसूरत सीन से न सिर्फ मोहब्बत को फिल्मों में एक नया आयाम दिया, बल्कि आर के प्रॉडक्शंस को पहचान दिलाई।
 
इसी फिल्म ‘बरसात’ की एक तस्वीर को कंपनी के लोगो में इस्तेमाल किया गया है।
 
समाजवाद से प्रेरित अपनी शुरूआती फ़िल्मों से लेकर प्रेम कहानियों को मादक अंदाज से परदे पर पेश करके राज साब ने हिंदी फ़िल्मों के लिए जो रास्ता तय किया, उस पर उनके बाद कई फ़िल्मकार चले। भारत में अपने समय के सबसे बड़े ‘शोमैन’ थे।
 
 
“जब रूस में राज कपूर की फिल्म रिलीज़ होती थी तो देखनेवालों की कई किलोमीटर लम्बी लाइनें लग जाती थीं. पचास के दशक में उनकी लोकप्रियता का आलम ये था कि वो अगर सोवियत रशिया के राष्ट्रपति का चुनाव लड़ते तो वहां भी जीत जाते।” गोवा फिल्म फेस्टिवल में लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार जीतने वाले रशियन निर्देशक अौर अॉस्कर विनर निकिता मिखेलकोव ने रशिया में राज कपूर की लोकप्रियता को याद करते हुए यह बातें कहीं थीं।
 
 
राज कपूर की फ़िल्में, जिनमे तेज़ी से बदलते भौतिकवादी बाज़ार और असमान औद्योगीकरण से जूझते आम लोगों की कहानियां मिलती हैं।
 
इनमें विधवा पुनर्विवाह से लेकर फीमेल सेक्सुअलिटी तक बड़े सामान्य तरीके से नज़र आती है। राज कपूर की फिल्मों का फलक बड़ा था। वे न सिर्फ भारत, बल्कि रूस और दक्षिण- पूर्वी देशों में खूब लोकप्रिय थीं।
 
खुद ‘राजू’ के किरदार में आम आदमी का अक्स और उसके आसपास की दुनिया दिखाई देती थी। सामान्य सी दिखती कहानी के माध्यम से इंसान के साथ ही पूरे समाज को आइना दिखाने की ताकत ही उनकी लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण था।
 
राज़ साब पर चर्चा कल भी जारी रहेगी…….

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