वह रात 2 बजे तक काम करते थे। ढाई बजे घर जाते। तीन बजे शावर लेना शुरू करते। करीब आधे घंटे तक। फिर कुछ खाते। 4 बजे के बाद अखबार आ जाता फिर उसे पढ़कर सोते। यह बातें खुद उन्होंने भास्कर रीलांच के दौरान भोपाल में उन्होंने बताई थी। काम को लेकर उनका जुनून पागलपन की हद तक था।
लेखक: सुधीर मिश्र/संपादक, नवभारत टाइम्स, लखनऊ और एनसीआर
अभी हफ्ते दस दिन पुरानी बात है। शाम करीब सात आठ बजे के बीच कल्पेश जी का फ़ोन आया। एक सुखद आश्चर्य की तरह। करीब तीन साल पहले शायद होली या दीवाली पर उनसे आखिरी बात हुई थी। इस बार की बातचीत में मैंने महसूस किया कि शेर की दहाड़ में कुछ नरमी है। शेर इसलिए कह रहा हूँ कि उनकी व्यक्तित्व में ऐसी बात थी। वे गरज कर बोलते थे और गरज कर लिखते थे। खैर उन्होंने हालचाल लिया, काम के प्रोफाइल के बारे जानकारी ली और तरक्की से खुश हुए। बात उनके आशीर्वाद औऱ बड़े भाई जैसे प्रेम के साथ खत्म हुई।
मुझे बिलकुल अहसास नहीं था कि सिर्फ 10 दिन के भीतर वह हमेशा के लिए जाने वाले हैं, ऐसा होना भी अस्वाभाविक है कि एक सेहतमंद व्यक्ति के बारे में ऐसा सोच भी पाएं।
सुबह आंख खुलते ही यह मनहूस खबर मिली तो आँखें भर आईं। दरअसल संपादक बनने का ककहरा मैंने उनकी देखरेख में ही सीखा।फरवरी 2010 में दिल्ली में कल्पेश जी से इंटरव्यू के दौरान पहली बार मुखातिब हुआ था। उस वक्त हिंदुस्तान में प्रमुख संवाददाता था। अच्छी बातचीत रही। उन्होंने सीधे डेप्युटी एडिटर बनाकर श्रीगंगानगर भेजा।
कल्पेश जी के जुनून को मैंने यहां से महसूस करना शुरू किया। भास्कर ग्रुप के सर्वेसर्वा सुधीर अग्रवाल जी हमेशा कहते थे कि संपादकों को रात आठ बजे तक घर चले जाना चाहिए। ताकि वह अपना वक्त निजी जिंदगी को भी दे सकें। दूसरी तरफ कल्पेश जी की ठीक उलट कहानी थी। जब मैं वहां था तो वह रात 2 बजे तक काम करते थे। ढाई बजे घर जाते। तीन बजे शावर लेना शुरू करते। करीब आधे घंटे तक। फिर कुछ खाते। 4 बजे के बाद अखबार आ जाता फिर उसे पढ़कर सोते। यह बातें खुद उन्होंने भास्कर रीलांच के दौरान भोपाल में उन्होंने बताई थी। काम को लेकर उनका जुनून पागलपन की हद तक था।
मुझे याद है कि अमेरिका के प्रेजिडेंट ओबामा भारत आने वाले थे। रीलांच प्रोजेक्ट पर हमारे साथ काम कर रहे बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस्माइल लहरी को उन्होंने बुलाया। एक अमेरिकन कॉमिक्स दी और कहा मुझे ऐसे स्केच चाहिए। फिर कहा-ओबामा की गाड़ी जब रुकने वाली होती है तो चालीस पचास की स्पीड के दौरान ही उनके सिक्योरिटी गार्ड गाड़ी से जूम से कूदते हैं, मुझे वो फील कैरिकेचर में चाहिए। इस्माइल सुनकर चुपचाप चले आए और लगे जोर जोर चिल्लाने। थमा दी अमेरिकन कॉमिक्स। जानते हैं वहां आर्टिस्ट को कितने डॉलर मिलते हैं, जूम का फील चाहिए, हम नहीं बना पाएंगे। गुस्से को देख लगा कि कल्पेश जी की कल्पना तो हवा हो गई। पर दो दिन बाद का अखबार देखा तो मजा आ गया। जैसा कल्पेश जी ने सोचा था लहरी ने वैसा बनाया था।
दरअसल कल्पेश जी सिर्फ जुनूनी पत्रकार ही नहीं, बेहतरीन मैनेजर भी थे। आखिर इतने बड़े समूह के ग्रुप एडिटर ऐसे ही नहीं थे। वह चाहते थे कि जिस तरह मैनेजर्स और एग्जेक्युटिव के काम को टारगेट के हिसाब से आंका जा सकता है, वैसा ही पत्रकारों के लिए भी हो। इसीलिए उन्होंने डेस्क और रिपोर्टिंग में अलग अलग कैटेगिरी बना दी थी। टारगेट निर्धारित किये कि किस संस्करण में कितनी ब्रेकिंग न्यूज़ हुई, कितनी ऐसी खबरें हुई जिन्होंने सामाजिक आर्थिक हालात बदलने में प्रेरक भूमिका निभाई, किसने लेआउट में क्या प्रयोग किये।
वे पत्रकारों को भरपूर ट्रेनिंग देते थे। यह प्रयोग काफी सफल रहे, अखबार आगे भी बढ़ा पर एक चीज जो मुझे हमेशा खटकती थी, वो कल्पेश जी की कार्यशैली। वह जुनूनी थे, पर वह जिस तरह से काम कर रहे थे, उसमें अंततः तनाव के चरम पर पहुंचना ही था। आपका मन, आपकी इक्छा शक्ति पर आप खुद परम साहसी हो सकते हैं और शरीर अपनी उम्र के हिसाब से काम करता है। शायद वह इस वैज्ञानिक तथ्य को महसूस नहीं कर पाए, उन्होंने बहुत बार यह छापा की एक वर्किंग प्रफेशनल को किस तरह खुद को वक्त देना चाहिए पर शायद वो उन्होंने खुद को नहीं दिया।
वह अकसर कहते थे, 54 की उम्र में रिटायर हो जाऊंगा। काश वह हो जाते। 55 की उम्र में भी उनके दिमाग मे सिर्फ भास्कर था, काश थोड़ा खुद के लिए भी सोचते।
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे, ओम शांति.
(सुधीर मिश्र जी के फसबुक वाल से साभार)