तिब्बत में भोजन से लेकर शौचालय की बदइंतज़ामी करती है कैलास-मानसरोवर यात्रियों को शर्मसार
अलका कौशिक, वरिष्ठ पत्रकार/ नई दिल्ली
तीर्थयात्राओं में बदइंतज़ामी तो सुनी थी मगर बदसलूकी? पश्चिमी तिब्बत स्थित कैलास पर्वत और मानसरोवर की परिक्रमा के लिए भारत से जाने वाले आस्थावानों की भावनाओं के साथ चीन शुरू से खिलवाड़ करता आया है। लेकिन उसकी शरारत अक्सर अपने कब्जे वाले इलाके में पहुंचने के बाद यात्रियों के साथ शुरू हुआ करती थी। पर इस बार तो नाथुला के रास्ते जा रहे पहले और दूसरे बैच के 90 यात्रियों को चीन ने अपने क्षेत्र में घुसने तक नहीं दिया है। यह दोनों देशों के बीच तीर्थयात्रा को लेकर हुए समझौते का सरासर अपमान नहीं तो और क्या है?
चीन की यह शरारत कोई नई बात नहीं है। उत्तराखंड में लिपुलेख दर्रे से होकर पारंपरिक तीर्थयात्रा मार्ग से कैलास-मानसरोवर जाने वाले यात्रियों के साथ चीन का बर्ताव बेहद सौतेला रहा है। मगर अचरज कि न तो हम यात्री लौटकर इस बारे में अपनी सरकार को सतर्क करते हैं और हमारी सरकार भी अपनी सीमा के इस पार जिन यात्रियों को सिर-आंखों पर बैठाकर रखती है, चीन के भीतर उनके साथ क्या होता है, इस बारे में कुछ भी जानना नहीं चाहती।
2014 में पारंपरिक तीर्थयात्रा मार्ग से अपने पुरखों के पदचिह्नों पर से गुजरने के बाद मैंने भी उस बदसलूकी पर खामोशी अख्तियार कर ली थी। इसकी दो वजहें थीं। एक, मैं इस पूरी घटना पर शांति से सोच-विचार कर लेना चाहती थी। जल्दबाजी में, हड़बड़ी में, आक्रोश में कुछ भी प्रतिक्रिया करने से बच रही थी। दूसरे, मैं भविष्य में अपनी चीन यात्राओं को जोखिम में नहीं डालना नहीं चाहती थी। और फिर कैलास-मानसरोवर यात्रा में नाथुला मार्ग से तो 2017 yatra season में भी ‘वेटलिस्टेड’ हूं।
चुप रह जाने में भलाई दिखी थी, लेकिन इस बार नाथुला होते हुए बस मार्ग से कैलास दर्शन का ख्वाब आंखों में सजाए यात्रियों को वापस भेज देने की घटना ने मुझे झकझोर दिया है। धिक्कार है, चीन!
उन अनजान तीर्थयात्रियों के सिक्किम से दिल्ली लौटने की खबर ने मेरे वो घाव हरे कर दिए हैं जिन्हें अपने सीने में अब तक दबाए रखा था। अब वक्त आ गया है, भविष्य के यात्रियों के साथ उन बातों को साझा करने का जो इस तीर्थयात्रा पर उत्साह से निकलते हैं, फिर कुछ जख्मों को जीते हैं मगर कैलास दर्शन से इतने अभिभूत हो जाते हैं कि हर शिकवा, शिकायत भूल जाते हैं। या शायद हम कहीं डर जाते हैं। मगर आज से उन तमाम बदसलूकियों पर बात करने का वक्त आ चुका है जो भाारतीय तीर्थयात्रियों पर चीन बरपा करता है।
जब सब्जियों के टोकरे की तरह: उत्तराखंड-तिब्बत सीमा पर 15 हजार फुट की ऊंचाई पर है वो लिपुलेख दर्रा जिसे पार करने के लिए हमने रात 1 बजे से ट्रैकिंग शुरू कर दी थी। जंगली हवाओं और किटकिटाती सर्दी से जूझते यात्रियों को इस दर्रे पर डेढ़-दो घंटे यात्रियों को रोक दिया जाता है। न सिर पर छत और न पेट में निवाला, ऊपर से चीनी इमीग्रेशन अधिकारियों के कठोर चेहरे तीर्थयात्रियों को तनावग्रस्त कर जाते हैं, सो अलग।
इस दर्रे से चीन में घुसने की शर्त होती है पिछले बैच के यात्रियों का लौटना। यानी, जो यात्री पहले से चीन के क्षेत्र में होते हैं उनके दर्रा पार कर इस तरफ आने पर ही नए बैच को उस पार उतरने दिया जाता है। हालांकि, दोनों बैचों के लायज़न अधिकारी भरपूर यह कोशिश करते हैं कि दोनों बैच लगभग एक साथ दर्रे पर पहुंचे लेकिन हिंदुस्तान की सीमा से आधी रात से शुरू होने वाली दुर्गम ट्रैकिंग और उस तरफ करीब सौ-सवा सौ किलोमीटर का फासला तय कर आने वाले यात्रियों के समय में कुछेक घंटे का अंतर लाज़िम है। चीन की तरफ से दर्रे पर पहुंचने के लिए करीब दो-ढाई किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है जिस पर अच्छे-अच्छे यात्रियों की आंखों में आंसू आ जाते हैं।
15 अगस्त, 2014 की उस सुबह साढ़े छह बजे हम दर्रे पर पहुंच चुके थे, इंतज़ार में सूखते-ठिठुरते हुए करीब आठ बजे हमें लिपुलेख के उस पार जाने की इजाज़त मिली। हम दर्रे की तीखी ढलान पर उतरने लगे जिस पर हर सौ-पचास कदम पर चीनी मौजूद थे। शायद कुछ सेना-पुलिस के अधिकारी होंगे और कुछ हम यात्रियों को वहां से निकालकर आगे तकलाकोट ले जाने वाली तीर्थयात्रा व्यवस्था का हिस्सा थे। मैं हथेली में बंधी कपूर की नन्ही पोटली को सूंघकर किसी तरह अपनी उखड़ती सांसों को काबू में रखने की कोशिश में थी। पैरों में जैसे पत्थर बंध चुके थे और अपनी ही काया को ढोना नागवार लग रहा था। कैलास दर्शन की आस कुछ पल के लिए किसी कोने में दुबक गई थी। शरीर की सारी ताकत उस दर्रे को किसी तरह पार कर लेने में झोंकी जा चुकी थी। सामने से चीनी गाइड डॉल्मा ने मुझे लुढ़कते-संभलते हुए आते देखा तो मेरा हाथ पकड़कर लगभग खींचते हुए नीचे ले गई। करीब दस मिनट यों ही उसने मुझे पकड़कर चलाया होगा तब कहीं जाकर कुछ गाड़ियां दिखायी दी।
हमने लगभग आठ दिन बाद गाड़ी और सड़कें देखी थीं। एक-एक कर यात्रियों को इन गाड़ियों में उनके बैक-पैकों के साथ “ठूंसा” जा रहा था। लगभग सारी गाड़ियां रवाना हो चुकी थी। अंत में मैं और पुणे की डॉ स्नेहल ही बचे थे। कुछ इंतज़ार के बाद एक और गाड़ी वहां पहुंची जिसमें ड्राइवर के साथ उसका एक साथी भी था। पीछे की तीन सीटें खाली थी और हम तेजी से उनकी तरफ बढ़ चले। लेकिन हमें उन सीटों पर बैठने से रोक दिया गया और उसकी बजाय गाड़ी के पिछले हिस्से में सामान रखने वाली जगह पर बैठने का इशारा उन दोनों ने किया। हमें कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि जिस हिस्से में सामान लादा जाता है उसमें हम दो शहरी औरतें कैसे घुस सकती हैं। टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में ड्राइवर ने बताया कि गाड़ी की पिछली सीटों पर सेना के अधिकारियों ने बैठना है, लिहाजा हमें उस जीपनुमा गाड़ी के पिछले उस हिस्से में ही ‘लदना’ होगा। हमें उतनी उंचाई पर चढ़ने में दिक्कत हुई तो ड्राइवर ने सहारा देकर हमें किसी तरह उस कोठरीनुमा हिस्से में घुसा दिया। उस हिस्से में सब्जियों के बोरों सी लदी हम दोनों औरतें अपनी इस हालत पर इतनी शर्मसार थीं कि अगले सात किलोमीटर के रास्ते में हमने आपस में कुछ बात भी नहीं की।
कैलास दर्शन की पच्चीस साल पुरानी कैलास दर्शन की आस को यों पहला झटका लगा था। बहरहाल, यह तो शुरूआत भर थी। आगे के आठ दिनों में हमें अभी और कई झटके लगने थे। और हां, पिछली सीटों पर कोई नहीं बैठा था। वो यों ही खाली रही थी!
असहजता के दो दिन: जीपों से करीब 3 किलोमीटर का फासला नापने के बाद हम बसों में सवार हो चुके थे जो हमें 19 किलोमीटर दूर तकलाकोट पहुंचाने वाली थीं। चीन ने इस दुर्गम इलाके में भी सड़कों का जाल बिछा रखा है, फर्राटा दौड़ते हाइवे हैं जबकि सड़क के दोनों तरफ दूर-दूर तक सिर्फ रेगिस्तानी बियाबान है। हम करीब घंटे भर में पुराने व्यापारिक कस्बे तकलाकोट (पुरंग) पहुंच चुके थे मगर वहां पुराने जैसा कुछ नहीं दिखता। यह पूरा कस्बा चीनी सेना और पुलिस का अड्डा ज्यादा लगता है। हमें यहां एक शानदार होटल में ठहराया गया जो शायद थ्री-स्टार रहा होगा। लेकिन चेक-इन से पहले ही हमें सैनिक ठिकानों, पुलिस चौकियों, सेना की इमारतों वगैरह की फोटो न खींचने की सख्त हिदायतें ऐसे दी जा रही थीं जैसे देहात के स्कूलों में मास्टरसाब बच्चों को धमकाते हैं। हम तीर्थयात्रियों को सेना-वेना से क्या मतलब हो सकता है, लेकिन कहीं हम गलती से भी किसी संवेदनशील इमारत को कैमराबंद न कर लें, इस गरज से हमें लंबा-चौड़ा लैक्चर पिलाया गया।
बेशक, पिथौरागढ़ की दुर्गम चढ़ाई के बाद चीन की आधुनिक सुविधाएं हमें लुभा रही थीं मगर चीनी तेवर असहज बना रहे थे। ठीक उस पल हम अपने देश और परदेस के हालातों की तुलना करने से खुद को नहीं रोक पाए थे।
तकलाकोट में हमें दो दिन ठहरना था और इस बीच हमारे पासपोर्ट इमीग्रेशन जांच के लिए ले लिए गए थे। आधी रात से जागे हम यात्री नहाने-धोने के बाद डाइनिंग हॉल की ओर लपके थे। ”इस चमड़े को खाने आए हो?” हमें हॉल में घुसते देख बड़ौदा के एक यात्री ने सवाल दागा था। भूख से बेहाल हमारे शरीर उस वक्त किसी तर्क को सुनने को तैयार नहीं थे, लिहाजा हमने उस सवाल को अनुसना किया और अपनी थाली में वो सब परोस लिया जो बुफे में था। मोटे-गीले चावल, चमड़ानुमा मैदे की रोटी, नमक-हल्दी विहीन आलू की बेस्वाद सब्जी …. उफ्फ, चीनी सीमा के भीतर पहले ही दिन पहले ही भोजन ने हमें हिकारत से भर दिया था। सलाद में कटे सेबों से मैंने भूख मिटायी और अपने कमरे में लौट आयी। सबने तय किया कि अब बाकी के वक्त भोजन बाहर बाजार में किया जाएगा। तकलाकोट का बाजार इस लिहाज से बढ़िया था।
चीनी भोजन का पहला अघोषित बहिष्कार: दरअसल, चीनी व्यवस्था के तहत् हर बैच के साथ 4-5 रसोइये तकलाकोट में ही ‘नत्थी’ कर दिए जाते हैं। उनकी ‘कलिनरी स्किल्स’ का पहला नमूना देखने के बाद हम सभी सहमे हुए थे। हमें चीनी सीमा में 8 दिन रहना था और तीनों वक्त के खाने की जिम्मेदारी इन्हीं रसोइयों के हवाले थी। अब तक हमारे दल की महिला यात्रियों ने कमर कस ली थी। तकलाकोट के बाजार में पूरी शाम उन्होंने ताजा सब्जियां, मैगी के पैकेट, फल वगैरह खरीदने में झोंक दी ताकि आगे परिक्रमा के दौरान कम से कम खाना तो ठीक-ठाक मिले। लेकिन दिक्कत फूड आइटम की नहीं थी, दरअसल, उन लड़कों को न तो खाना बनाने का शऊर था और न ही हमारे लिए उनके मन में कोई दयाभाव था। अगले पड़ावों में वे पनियाली मैगी से हमें निपटाने के चक्कर में दिखे तो हम यात्रियों ने हो-हल्ला भी किया। मगर वहां हमारी सुनने वाला कोई नहीं होता।
और वैसे भी शिव दर्शन की आस मन में लेकर, दुरूह रास्तों की चुनौतियों को झेलते हुए तिब्बत पहुंचने वाला हिंदुस्तानी तीर्थयात्री अपने बैच लीडर से सैटलाइट फोन लेकर भारत के विदेश मंत्रालय को यह शिकायत तो करने से रहा कि यहां खाने में तीनों वक्त अत्याचार गले उतारने को मजबूर हैं हम हिंदुस्तानी!
आधार पड़ाव: दो रोज़ बाद तकलाकोट से दारचेन पहुंचे। यह कैलास का आधार पड़ाव है — परिक्रमा पथ पर पहला बेस कैंप। ल्हासा और काठमांड़ो के रास्ते कैलास दर्शन को आने वाले तीर्थयात्री भी यहीं पहुंचते हैं। दारचेन के जिस होटल में हमें ठहराया गया वो काफी बेसिक था मगर कंक्रीट की दीवारों-छतों का बना था। इस बेसिक होटल की पार्किंग में मैंने दुनिया की सबसे भव्य एसयूवी देखी थीं। लैंडक्रूज़र के एक से एक उम्दा मॉडल, ऊंची-लंबी-चमकीली गाड़ियों और बसों से पटी वो पार्किंग लंदन की सड़कों पर दौड़ने वाले वाहनों को भी मात देने वाली लगी थी मुझे।
होटल में घुस आए चीनी सैनिक: हम थके हाल तो थे ही, उपर से बीते दो रोज़ से कच्चा-पक्का खाने से कमजोरी भी महसूस कर रहे थे, लिहाजा दारचेन पहुंचते ही नहा-धोकर सोने के लिए बिस्तरों में घुस चुके थे। पहला झोंका भी ठीक से नहीं आया था कि शोर सुनकर उठ गए। कोई हमारा दरवाजा ज़ोर से पीट रहा था। बाहर गलियारे में वैसा ही शोर बढ़ रहा था। मैंने अपने पति की तरफ देखा और उन्होंने भी उतनी ही बदहवासी में मुझे देखा, जैसे पूछ रहे हों ‘दरवाज़ा खोलना चाहिए क्या?’ दरअसल, वो दरवाज़ा खटखटाना नहीं था बल्कि पीटना था। खैर, मेरे पति दरवाज़ा खोलकर कुछ पूछते उससे पहले ही हमारे तिब्बती गाइड ने फरमान सुना दिया ‘सब आदमी लोग होटल लॉबी में पहुंचो। आर्मी को आप लोगों की तलाशी लेनी है। और अपना-अपना फोन, कैमरा भी साथ लेकर आओ … जल्दी…जल्दी करो।’
अब ये क्या मुसीबत है। तलाशी? हम तीर्थयात्रियों की? जो बीते दस-बारह रोज़ से सड़कों की धूल फांकते हुए हल्कान हो चुके थे। आदेश तो आदेश था। जल्दी-जल्दी एक डीएसएलआर और अपना और मेरा मोबाइल फोन लेकर मेरे पति होटल लॉबी की तरफ चले गए। मेरे सीने में उस वक्त आ-जा रही सांसों का कुहराम बाहर तक सुना जा सकता था। ‘हे भगवान, ये क्या मुसीबत में डाल दिया है? मगर हमने तो कुछ किया भी नहीं …’ मेरे कमरे के सामने से गुजर रहे यात्रियों की बातचीत मुझे सहमाने के लिए काफी थी।
इस बीच, सारे पुरुष यात्री अपने-अपने फोन और कैमरे लेकर लॉबी में पहुंच चुके थे। हरेक चेहरा लटका था, हर चेहरे पर तनाव साफ दिख रहा था। और पीछे छूट गई हम औरतों का हाल तो बेहाल ही था। पता नहीं क्या होगा। सैनिक पकड़ तो नहीं लेंगे किसी को? मगर वो ऐसा क्यों करेंगे? तभी गाइड गुरु आता दिखा तो मैंने उसे रोककर पूछना चाहा। उस नकचढ़े तिब्बती गाइड ने बहुत ही उखड़ा-उखड़ा जवाब दिया ‘कहा था न आप लोगों से कि फोटो मत खींचना तकलाकोट में, किसी ने खींचा है आप लोगों में से। उनके सीसीटीवी में आ गया है। इसीलिए ये लोग अब तलाशी लेने आए हैं …”
सीसीटीवी और तलाशी: अब हम सब अपने आप को शक के दायरे में रख रहे थे। मैंने भी तकलाकोट के बाजार में फोटोबाजी की थी। मगर काफी संभलकर। दुकानों-शोरूमों को छोड़कर बाकी की इमारतों से बचकर खींचे थे फोटो। तो भी, कहीं गलती से कुछ कैद हो गया हो तो? अब मुझे आगे की सारी यात्रा बेकार होती दिखी थी। बाकियों का भी हाल यही था। हम सभी के चेहरों पर हवाइयां उड़ रही थी। लगभग आधा बैच शक के घेरे में आ चुका था। और सभी के सारे डिवाइस जब्त होने के जोखिम से घिरे थे। करीब 30-40 मिनट बाद एक-एक कर हमारे दल के पुरुष यात्री लौटते दिखे। उन चेहरों पर सुकून और राहत की लकीरें थी। जैसे कह रहे हों ‘मैं बच गया’। और फिर दूसरा लौटता चेहरा भी ”मैं भी बच गया” का ऐलान करते हुए आया। मेरे पति भी लौट आए थे, अपने तीनों डिवाइसों के साथ।
मेमोरी कार्ड खरीदा था: पता चला, किसी ने तकलाकोट में नया मेमोरी कार्ड खरीदा था और अपने कैमरे में उसे लोड करने के बाद टैस्टिंग के लिए फोटो खींचे थे वहीं दुकान पर खड़े-खड़े। बस, वो खाली मेमोरी कार्ड पर दर्ज दो-चार टैस्ट फोटो ही सीसीटीवी ने पकड़े लिए थे और सारी बवाल की जड़ वही थे। सेना उस मेमोरी कार्ड को अपने साथ लेती गई थी जिसमें शायद कुछ भी संवेदनशील नहीं था। हां, अपनी खीझ और झुंझलाहट को उतारने की खातिर कुछ तो करना था।
उस घटना ने सबका मूड तबाह कर दिया था। हमें चोर समझा गया, जासूस की तरह देखा गया और एक अदना-सा गाइड भी हमें उपदेश देने से नहीं चूका था। अपमान का ये घूंट भी हम पी गए थे। शायद मन को कहीं से आभास था कि सबसे बड़ी दुश्वारी अभी बाकी है।
मल से गंधाते शौचालय: अगले दिन दारचेन से यमद्वार तक हमें बस से लाया गया। यहां से आगे 52 किलोमीटर की कैलास परिक्रमा पैदल या घोड़ों पर करनी थी। पहले दिन करीब 12 किलोमीटर की ट्रैकिंग कर दोपहर बाद हम अपने पहले पड़ाव डेरापुक पहुंचे। कैलास पर्वत की जड़ में है डेरापुक, चरण स्पर्श के एकदम नज़दीक और कैलास की स्थिति तो ठीक ऐसी है कि हाथ बढ़ाओ और छू लो उसकी रजत काया को।
अगले 18 घंटे हमें कैलास की छाया में गुजारने थे, इससे बड़ा सौभाग्य किसी का क्या हो सकता था। हर पल वही दृश्य सामने था जिसके लिए बीते दो हफ्ते से अपने घरों से दूर यहां चले आए थे। मगर चीन की शरारत हमें यहां सबसे ज्यादा चुभी थी। डेरापुक में यात्रियों के ठहरने के लिए 2 3 हॉलनुमा कमरे हैं , दो कतारों में खड़े हैं ये कमरे। पहली कतार हम महिलाओं के ठहरने की और ठीक सामने पुरुषों के कमरे। हमारे कमरे के पिछले हिस्से में कैलास पर्वत। इस जगह से कुछ दूर जो पब्लिक टॉयलेट बनाया गया था उसमें जाने का हौंसला किसी यात्री ने नहीं दिखाया। जो गए, जिनमें मैं भी थी, वो किसी तरह जिंदा लौटे थे। मुझे सुप्रसिद्ध इतिहासकार शेखर पाठक डॉ शेखर पाठक की कैलास पर तीस साल पहले लिखी किताब नीले बर्फीले स्वप्नलोक में का एक अंश याद आ गया। वो एक जगह लिखते हैं — ”उन शौचालयों में एक हजार साल का मल पड़ा था”। डॉ पाठक ने अस्सी के दशक में अपनी कैलास यात्रा के संस्मरण में जो बात लिखी थी उसमें मैंने 31 साल और जोड़कर कहा — ”डेरापुक के उस पब्लिक टॉयलेट में एक हजार इकतीस साल से मल पड़ा था जिसे कभी साफ नहीं किया गया था।”
हम सबों ने तय किया कि उस जगह जाकर इंफेक्शन का जोखिम लेने की बजाय करीब आधा किलोमीटर दूर बह रही धारा के किनारे जाकर फारिग हुआ जाए। और इस तरह, परिक्रमा पथ पर दूसरा दिन खुले में मुक्त होने की त्रासदी लेकर आया। मगर ये तो उजाले का इलाज था, आधी रात को जब नींद खुली तो हमारे कमरे में औरतों की खुसर—पुसर चल रही थी। उस बीरान प्रदेश में शौच के लिए दूर जाना अक्लमंदी नहीं था, तय हुआ कि अपने कमरे के पिछले हिस्से में ही जाकर मुक्त हुआ जाए। और उस चांदनी रात में कैलास की चमकती काया के ठीक सामने, हम मजबूर यात्रियों ने अपने आपको उस मजबूरी के लिए कोसते हुए खुद को मुक्त किया। चीन की उस बदमाशी को हम सब ताड़ रहे थे। अपने ही आस्था के कैलास के सम्मुख नग्नावस्था में, शौच क्रिया से निपटने की उस मजबूरी को पचाना किसी भी आस्थावान के लिए आसान नहीं था। मगर एक तरफ हजार साल के मल से गंधाता शौचालय था और दूसरी तरफ कैलास। मुझे याद है रात के ढाई बजे मैं सोच रही थी — जिस चीन ने यात्रियों के लिए व्यवस्था के नाम पर हमसे साठ-सत्तर हजार की रकम वसूली है, वो एक मामूली टॉयलेट से भी हमें महरूम किए है!
फिर तो अगले 3-4 रोज़ हम ऐसे ही सड़ांध वाले शौचालयों से जूझे थे। यहां तक कि मानसरोवर के तट पर ट्रुगो होटल का टॉयलेट, जो टाइलों से जड़ा था, धुला था, साफ दिखता था लेकिन उसमें भी मल निपटारे का हाल वैसा ही था। टॉयलेट सीट के नीचे जिस घुप्प अंधेरे गड्ढे में जाकर मल गिरता था, वो शायद सदियों से वहीं जमा था। तिब्बत के सर्दीले दिन और रात में वो बायो-वेस्ट कभी वेस्ट ही नहीं हुआ। वहीं जमा रहा है और आज भी उस सड़ांध को झेलते हैं हम इक्कीसवीं सदी के यात्री। उसी चीनी व्यवस्था में जो हर मोर्चे पर दुनिया की हर बड़ी ताकत को टक्कर दे रहा है। मगर कैलास-मानसरोवर तीर्थयात्रियों के साथ बदइंतज़ामी से बाज़ नहीं आ रहा। वरना डेरापुक में शौच के लिए एक ओट का इंतज़ाम तो किया ही जा सकता था।
क्या है पृष्ठभूमि: साठ के दशक में तिब्बत मसले पर चीन के साथ तनातनी के बाद कैलास-मानसरोवर तीर्थयात्रा मार्ग को चीन सरकार ने बंद कर दिया था जो आखिरकार 1981 में दोबारा खुला। तभी से आज तक उत्तराखंड में पिथौरागढ़ के रास्ते बेहद दुर्गम ट्रैकिंग रूट से यात्रा जारी है। इस बीच, 2015 में पहली बार यात्रियों को दो मार्गों से गुजरने का विकल्प मिला। विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज की 31 जनवरी से 3 फरवरी, 2015 की चीन यात्रा के दौरान दोनों देशों ने इस आशय के समझौतों को अंतिम रूप दिया था। इससे पहले 2014 में चीनी राष्ट्रपति ली शीपिंग की भारत यात्रा के दौरान सिक्किम में नाथुला से होकर कैलास-मानसरोवर तीर्थयात्रा मार्ग को जल्द खोलने की घोषणा की गई थी। हालांकि दोनों देशों के बीच व्यापार के लिए नाथुला मार्ग को 2006 में पहले ही खोला जा चुका है लेकिन चीन सरकार हर साल सीमित संख्या में ही यात्रियों को कैलास दर्शन के लिए वीज़ा जारी करती है।