आजादी से पहले हमारे अधिकतर राजा, महाराजे, जमींदार लोग भी भ्रष्ट थे। इनमें खानदानी भ्रष्टाचार के गुण समा गए थे। ये आर्थिक, मानसिक और चारित्रिक रूप से बेईमान थे। अंग्रेजों के ख़ातिरदार थे और अपने फायदे के लिए देश की जनता और देश के साथ खेलते थे। इतिहास बताता है कि हमारे देश में ईमानदार लोगों की बहुत हद तक कमी रही है।
अखिलेश अखिल, वरिष्ठ पत्रकार/नई दिल्ली
भ्रष्टाचार सचमुच में एक बड़ा राजनीतिक अस्त्र है। यह हमला भी करता है और हमले से बचने की कोशिश भी करता है। कहा जाता है कि राजनीति की शुरुआत ही भ्रष्टाचार की नींब पर हुयी। पहले के जमाने में आर्थिक भ्रष्टाचार कम होते थे लेकिन मानसिक भ्रष्टाचार में कोई कमी नहीं थी। आजादी से पहले भी और बाद में भी। आजादी से पहले हमारे अधिकतर राजा, महाराजे, जमींदार लोग भी भ्रष्ट थे। इनमें खानदानी भ्रष्टाचार के गुण समा गए थे। ये आर्थिक, मानसिक और चारित्रिक रूप से बेईमान थे। अंग्रेजों के ख़ातिरदार थे और अपने फायदे के लिए देश की जनता और देश के साथ खेलते थे। इतिहास बताता है कि हमारे देश में ईमानदार लोगों की बहुत हद तक कमी रही है। याद कीजिये मुगलिया सल्तनत के दौर में जितने भी युद्ध हुए हैं सबमे बेईमानी और धोखे की कहानी दर्ज है। ब्राह्मण, ब्राह्मण के खिलाफ। राजपूत राजपूत के खिलाफ। दलित, दलित के खिलाफ और बनिया, बनिया के खिलाफ। यह खिलाफ या चुप रहने की राजनीति बड़े चालाक और बेईमान लोग ही करते हैं। मुगलिया सलतनत के बाद अंग्रेजों ने हमारी जो दशा बनायी थी उसमे अंग्रेज के कारनामे कम थे हिन्दुस्तानी ठगों, बेइमानों और भ्रष्टाचरियों के जुल्म ज्यादा थे।
आजादी के बाद भी ऐसा ही चलता रहा। संविधान बनाने के दौरान भी खेल कम नहीं थे। कोई किसी को बड़ा नेता मानने को तैयार नहीं था। सबके पीछे सबकी बुराई चल रही थी। सभी अपनी-अपनी विद्वता का परिचय देने में लगे थे। लेकिन उनमे से कई कतई ईमानदार नहीं थे। कई अंग्रेजों के चापलूस थे तो कई अंगेजों के दलाल भी।
प्रधानमन्त्री नेहरू से लेकर अबतक के प्रधानमंत्रियों के चेहरे तो टटोलिये तो कोई ज्यादा फर्क नहीं मालूम होता। फर्क केवल दलगत राजनीति की हो सकती है। हमारे देश के किसी प्रधानमन्त्री ने ठगी, चोरी, बेईमानी और भ्रष्टाचार नहीं किया है। सब सम्मानित थे और हमेशा लोकतंत्र को जीवंत बनाने में लगे रहे। लेकिन देश क्या प्रधानमन्त्री चलता है ? हरगिज नहीं। ये जनता के नुमाइंदे कहलाने वाले कुछ ज्यादा ही चतुर और सयाना होते हैं। गिरहकटई इनके खून में होता है। नौकरशाहों से लेकर चपरासी और किरानी को आप कमजोर मत समझिये। आधा से ज्यादा सरकारी तंत्र पर इन्ही का हिंसा रहता है। अपने को , अपने आस पड़ोस को अपने घर के सरकारी नुमाइंदे को जब ईमानदारी से परखियेगा तो समझ में सब आ जाएगा। यह कैसे हो सकता कि बाप की गलत कमाई पर या बेटे की लूट पर बाप इठलाते हुए राष्ट्रवादी गाने गाये? दूसरों पर उंगुली उठाना आसान है लेकिन खुद को परखना भला किसे आता है ?
तो कहानी इतनी भर है कि भ्रष्टाचार के विरोध में दिल्ली में बनी केजरीवाल की सरकार भ्रष्टाचार की जननी बनती दिख रही है। कई मंत्री जेल जा चुके हैं तो कई असामाजिक कामो में लिप्त होने की वजह से बदनाम है। केजरीवाल मौन हो गए हैं। इसके पीछे भी राज है। कपिल मिश्रा भी दूध के धुले नहीं और नाही कुमार विश्वास। विश्वास ने पहले कपिल को ललकारा फिर संभावित राजनीति को अपने पक्ष में होते देख कपिल को दुत्कार दिया। अक्सर राजनीति यही है। ठगी वाली। कपिल की राजनीति अब समाप्त हो गयी है। बेईमानों ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा। जैसे बिन्नी की राजनीति को पलीता लगाया गया था। तो सच यही है कि हम किसी भी तरह के भ्रष्टाचार के बिना एक मिनट नहीं रह सकते। हमारे खून में यह है। हम धर्मराज के औलाद नहीं। राजनीति करेंगे और भ्रष्टाचार नहीं करेंगे तो आपको कौन पूछेगा? दिल्ली तब भी रोटी थी ,आज भी बिलख रही है। देश कल भी रोता था, आज भी सिसक रहा है। अंतर केवल रुदाली के स्वर में है।