इस बार फिर छले जाएंगे देश के किसान

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किसान आंदोलन दुर्भाग्य से भारत के गले की वो हड्डी रहा है जो न निगला जाए, न उगला जाए। महात्मा गांधी के साथ भी यही हुआ था, बुद्धदेव भट्टाचार्य के साथ भी यही, दिग्विजय सिंह के साथ भी हुआ। किसान नेताओं की बात करें तो स्वामी सहजानंद का जो हुआ वही चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत का और वही शायद शेतकरी संगठन के शरद जोशी का हुआ।

 अखिलेश अखिल, वरिष्ठ पत्रकार/नई दिल्ली

सच यही है कि इस देश में राजनीति को किसानों से कोई भय नहीं है। इसलिए राजनीति, किसी भी आंदोलन की तपिस को तापती है, संजोती है और अंत में जातीय कार्ड खेलकर किसान एकता को खंडित भी करती है। अभी तक ऐसा ही हुआ है। ऊपर से दिखाई तो यही पड़ रहा है कि देश किसान आंदोलन से लथपथ हैं। चलती गोलियां, मरते-गिरते किसान, चिल्लाते-भागते किसान-मजदूर, रोटी सेंकते राजनीतिक दल हालात कुछ ऐसे ही है। तब भी था और आज भी है। आजादी से पहले भी आजादी के बाद भी। ऊपर से किसानों कीआत्महत्या अलग से? गजब देश है हमारा! देखने में लगता है कि देश का किसान नाराज हैं और अबकी बार बीजेपी की राजनीति ख़त्म हो जायेगी। लेकिन सच्चाई तो यही है कि किसान फिर राजनीतिक दाव-पेंच के शिकार हो गए हैं। दरअसल इस देश का सच यही है कि इस देश की राजनीति को किसानों के बिना तो काम चल जाएगा लेकिन बनियों के बगैर देश भला कैसे चले? किसान वोट बैंक नहीं पर व्यापारी वोट बैंक है। किसान आंदोलन दुर्भाग्य से भारत के गले की वो हड्डी रहा है जो न निगला जाए, न उगला जाए। महात्मा गांधी के साथ भी यही हुआ था, बुद्धदेव भट्टाचार्य के साथ भी यही, दिग्विजय सिंह के साथ भी हुआ। किसान नेताओं की बात करें तो स्वामी सहजानंद का जो हुआ वही चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत का और वही शायद शेतकरी संगठन के शरद जोशी का हुआ।

सहजानंद जी को तो सभी जानते ही हैं। किसान घर से थे, पढ़े-लिखे थे लेकिन किसान मजदूरों के दर्द से आहत थे। उन्होंने किसान शोषण के खिलाफ बड़ा आंदोलन किया  और 1929 में बिहार प्रोविंशियल किसान सभा की स्थापना की की गयी। इसके पहले अवध में और आंध्र के गुंटूर में एक-दो किसान आंदोलन हो चुके थे। बिहार की सभा और इसके आंदोलन से तत्कालीन सरकार हिल गई। आंदोलन फैला और समय के बीतने के साथ भारतीय किसान सभा बनी जो बाद में जाकर पूरी तरह से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में घुलमिल गई।

भारतीय किसान सभा की आठ मांगें थीं। इसमें किसानों को बचाने के लिए उसके लगान में 50 फीसदी लगान कम करने की मांग थी। उसको बिना मजदूरी काम करने या बेगार से मुक्ति मिले। मजदूर को मजदूरी इतनी मिले कि वो जी-खा सके। इसके अलावा उन्होंने जमींदारों की जमीनों को और सरकारी जमीनों को भूमिहीन किसानों को देने की बात कही। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि ‘जमीन जोतने वालों की हो।’

महात्मा गांधी भी किसान सभा की इस बात को मानते थे कि जमीन उसको जोतने वाले किसान की होती है। लेकिन उनके लिए किसान आंदोलन के लिए खुलकर सामने आना मुश्किल हो गया। गांधी जी ने 1920 में उन्होंने असहयोग आंदोलन छेड़ा पर किसानों से आग्रह किया जहां-जहां अंग्रेजों का राज है वहां लगान न दें और जहां-जहां राजा-रजवाड़े और जमींदार हैं वहां उनके साथ बातचीत से हल निकाल लें। गांधी ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उनको देश के लिए जमींदारों, राजाओं, उद्योगपतियों, मजदूरों सबकी जरूरत थी। परिणाम यह हुआ कि 1922 में असहयोग आंदोलन बंद हो गया।
1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के समय किसान और आम आदमी का फर्क समाप्त हो गया। सब भारतवासी हो गए। आजादी के बाद तमाम छोटे-बड़े आंदोलन आए जमींदार चले गए, 1965 की भारत पाक लड़ाई के बाद हरित क्रांति आ गई। किसान नेता चौधरी चरण सिंह, भले करीब छह महीने के लिए ही सही, प्रधानमंत्री बन गए लेकिन किसानों की हालत नहीं बदली। तमाम तरह की योजनाएं बनीं लेकिन किसान की समस्या जस के तस पड़ी रही। किसानो के नाम पर ना जाने कितने संगठन बने कौन जाने? कितनी बार देशव्यापी और दिल्ली में आंदोलन हुए लेकिन किसान को कौन पूछे ? थोड़ी सी राज नीतिक लालच के सामने बेवस किसान मुँह लटकाये जीते चले गए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत और महाराष्ट्र में शरद जोशी किसान नेता ही थे। जहां शरद जोशी बेहद पढ़े-लिखे खुले बाजार और एफडीआई के समर्थक थे, वहीं चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत एक जाट नेता थे जो गन्ना किसानों के लिए बेहतर मूल्य और अधिक सुविधाएं चाहते थे।  दोनों ने सरकारों को हिला दिया, देश को कंपा दिया और राजनीति को प्रभावित करने की पूरी कोशिश की। लेकिन हुआ क्या ? क्या किसानो के दिन बहुरे ? कभी नहीं। शरद जोशी ने पार्टी बनाई, राजनीति की लेकिन उन किसानों ने उन्हें उतना वोट नहीं दिया जितना उनकी सभाओं और आंदोलनों को साथ दिखे।  टिकैत ने जिस पार्टी को समर्थन दिया वो पार्टी चुनाव हारती गयी। उस पढ़े लिखे जाट किसान नेता अजित सिंह को भी भुलाया नहीं जा सकता। राजनीति स्तर पर वे और उनकी पार्टी को किसानो ने क्या किया ,कौन नहीं जानता ?

सीपीएम भूमि सुधारों के साथ सत्ता में आई थी पर किसानों के भूमि अधिग्रहण के कारण सत्ता से चली गई, किसान फटेहाल ही रहा। मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह ने सरकारी जमीन गरीबों-भूमिहीनों में बांट दी लेकिन चुनाव हार गए और अंत में किसान को जमीन भी नहीं मिली। फिर किसान आंदोलन की कहानी का सच क्या है ? सच तो यही है कि किसान अपनी मांगो को लेकर आंदोलन तो करता है  किसान के साथ जीता है, मरता है, खपता है, कलपता है लेकिन पांच साल बाद वो जाट, यादव, कुर्मी, सवर्ण, आवरण और दलित पिछड़ा हो जाता है।  किसानो की इस कमजोरी को राजनीति जानती है, समझती है। इसलिए कोई भी सरकार तत्काल किसानो की समस्या से परेशान  तो  होती है लेकिन डरती नहीं। राजनीति को पता है कि चुनाव के वक्त जाती और धर्म महत्वपूर्ण  है ना की किसानी। आजादी से पहले से यही तो हो रहा है। सरकार और राजनीति डरती है तो व्यापारियों से , नौकरी वालों से और आम जनो से। व्यापारी अगर बिगड़ जाए तो राजनीति में खलल पड़ जाय। इसलिए किसानों की नाराजगी चाहे जितनी भी हो कोई फर्क नहीं पडेगा।

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