मेरे सामने ही कारसेवकों ने बाबरी ढांचे को गिरा दिया

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उमा, जोशी, आडवाणी सबके सामने ढांचा गिराया, हम पत्रकारों ने बमुश्किल अपनी जान बचाई थी

ढांचा गिरने पर जबरदस्त आवाज हुई, लगा कि भूकंप ने धरती हिला दी है, ढांचे गिराने में कोलकाता का एक नौजवान कारसवेक भी मरा था

क्या सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद आडवाणी-जोशी राष्ट्रपति चुनाव की दौड़ से बाहर हो गये?
राय तपन भारती/नई दिल्ली
ढाई दशक से भी ज्यादा समय बीत चुका है। लेकिन कुछ बातें जेहन में ऐसे बैठ जाती हैं जो हमेशा याद रहती हैं। आप उसे भुलाना भी चाहें तब भी ये मुमकिन नहीं होता। 6 दिसंबर 1992 का दिन भी कुछ ऐसा ही है। तब मैं महाराष्ट्र से दैनिक लोकमत समाचार के लिए खास रिपोर्टिंग करने अयोध्या गया था। तब उग्र कारसेवकों से दो बार अपनी जान बचाई थी। उनके हाथों में हथियार देखकर मैं एक बार बहुत ही डर गया था। सुरक्षा कारणों से मैं फैजाबाद के एक होटल में ठहरा था। उस वक्त हम सब पत्रकार fax और Telegram के जरिए रिपोर्टरिंग करते थे। तब वीडियो रिपोर्टिंग की शुरुआत हो रही थी।

सुप्रीम कोर्ट ने आज महत्वपूर्ण फैसला सुनाया कि बाबरी मस्जिद का ढांचा साजिश रचकर तोड़ने के लिए आडवाणी, जोशी, उमा भारती समेत उन नेताओं पर लखनऊ के लोअर कोर्ट में दैनिक आधार पर ट्रायल केस चलाया जाए। लोअर कोर्ट को इस मामले में फैसला लेने के लिए दो साल का वक्त मिलेगा। इस फैसले से आज देश की राजनीति में तूफान आ गया। अब आडवाणी और जोशी का राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार बनने की संभावना कम हो गई।

लंबे अर्से से यह लड़ाई लड़ी जा रही है कि राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद की विवादास्पद 2.77 एकड़ भूमि पर मालिकाना हक किसका है। हालांकि 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस भूमि को हिंदू, मुसलमान और निर्मोही अखाड़े में बांटने का फैसला सुनाया था लेकिन इस फैसले से कोई भी पक्ष खुश नहीं था और अब मामला सर्वोच्च न्यायालय में है।

जिस दिन फैसला आना था, अयोध्या के लोग यही दुआ मांग रहे थे कि बस फैसला आ जाए। इतनी कड़ी सुरक्षा उन्हें कैद में होने का अहसास कराती रही है। लेकिन उन्हें मुक्ति नहीं मिली। गाहे-बगाहे जब भी मंदिर बनाने की बात होती है, वहां सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी कर दी जाती है। जब भी अयोध्या जाता हूं, यही सुनने को मिलता है कि रामलला के साथ हम भी कैद में हैं। आज भी वो विवादित परिसर पूरी तरह से केंद्र सरकार के कड़े सुरक्षा घेरे में है। सरकार किसी भी चूक के लिए तैयार नहीं है। अगर 22 साल पहले यही मुस्तैदी दिखाई होती तो शायद यह नौबत नहीं आती।

कोई नहीं भांप पाया कारसेवकों के इरादे

आज भी वो दिन मुझे पूरी तरह से याद है। मैं उन दिनों नागपुर के लोकमत अखबार में चीफ रिपोर्टर था। 27 नवंबर 1992 को मुझे अयोध्या जाने को कहा गया। 6 दिसंबर को कारसेवकों ने रामजन्म भूमि पर कार सेवा का ऐलान किया था। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने विवादित राम जन्मभूमि पर किसी तरह के निर्माण कार्य पर पाबंदी लगा रखी थी और एक ऑबजर्वर भी नियुक्त कर रखा था। तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने भी सुप्रीम कोर्ट को कहा था कि उसके आदेशों का उल्लंघन नहीं होगा।

मैं अपने एक प्रेस फोटोग्राफर नागभीड़ के साथ 29 नवंबर 1992 को अयोध्या पहुंचा। कारसेवकों का जत्था धीरे-धीरे पहुंचने लगा था। शाम के वक्त मैं अयोध्या में कारसेवक पुरम में जाकर वहां का जायजा लेता था। लोगों से मिलता था, बातें करता था। हर दिन विवादित परिसर से कुछ दूर राम चबूतरा पर विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के नेता कारसेवकों से रूबरू होते, भाषण होते लेकिन इस वक्त तक ये आभास भी नहीं था कि इन कारसेवकों के इरादे इस बार कुछ करके दिखाने के हैं। पर मैंने कारसेवकों के तेवर उग्र थे।

30 नवंबर से बनने लगी थी भूमिका

30 नवंबर से अयोध्या पहुंचने वाले कारसेवकों की संख्या बढ़ने लगी। साथ ही उनके तेवर भी कड़े होने लगे। इसका अहसास उनके नारों और नेताओं के भाषण से मिलने लगा। कारसेवकपुरम में आरएसएस, बजरंग दल के नेताओं की लगातार जारी मुलाकात से संकेत मिलने लगे थे कि इस बार मामला आर-पार की लड़ाई का है। कुछ कारसेवकों का ये कहना था कि हर बार की तरह इस बार वे खाली हाथ नहीं जाएंगे और इस बार तो मुख्यमंत्री कल्याण सिंह भी उन्हीं के आदमी हैं। सैंया भए कोतवाल तो डर काहे का।

4 दिसंबर 1992 को मैंने अपने संपादक एसन विनोद से कहा कि एक और रिपोर्टर टीम की जरूरत है लेकिन उनका कहना था कि भीड़ देखकर मैं चकरा गया हूं। इस बीच भाषणों के बोल तीखे हो चले थे। वीएचपी नेता आचार्य धर्मेंद्र ने तो साफ-साफ कहा कि अपमान के इस खंडहर को हर हाल में गिराना होगा। अशोक सिंघल ने कहा कि प्रधानमंत्री नरसिंहा राव को दूसरा बाबर नहीं बनने दिया जाएगा। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि हमारा कोर्ट से कोई मतलब नहीं है।

बाबरी मस्जिद उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले के अयोध्या शहर में रामकोट पहाड़ी (“राम का किला”) पर एक मस्जिद थी। रैली के आयोजकों द्वारा मस्जिद को कोई नुकसान नहीं पहुंचाने देने की भारत के सर्वोच्च न्यायालय से वचनबद्धता के बावजूद, 1992 में 150,000 लोगों की एक हिंसक रैली के दंगा में बदल जाने से यह विध्वस्त हो गयी। मुंबई और दिल्ली सहित कई प्रमुख भारतीय शहरों में इसके फलस्वरूप हुए दंगों में 2,000 से अधिक लोग मारे गये।

भारत के प्रथम मुगल सम्राट बाबर के आदेश पर 1527 में इस मस्जिद का निर्माण किया गया था। पुजारियों से हिन्दू ढांचे या निर्माण को छीनने के बाद मीर बाकी ने इसका नाम बाबरी मस्जिद रखा। 1940 के दशक से पहले, मस्जिद को मस्जिद-इ-जन्मस्थान (हिन्दी: मस्जिद ए जन्मस्थान,उर्दू: “जन्मस्थान की मस्जिद”) कहा जाता था, इस तरह इस स्थान को हिन्दू ईश्वर, भगवान राम की जन्मभूमि के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है।

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