क्या वाकई बेटा और बेटी में फर्क मिट गया है?

0
413
संध्या रानी भट्ट बोकारो
क्या वर-वधू का चयन हाल के वर्षों में कठिन हुआ है? ऐसा नहीं है। वर-वधु का चयन तो हमेशा से ही बारीकी से होता आ रहा है। पहले घर-खानदान देखा जाता था। परिवार की सामाजिक हैसियत देखी जाती थी और सबसे महत्वपूर्ण उनकी अपनी प्राथमिकताएं क्या-क्यां हैं वो भी देखी जाती थीं।
आज भी शुरुआती दौर में घर-परिवार, खानदान आदि देखा जाता है। दूसरे पायदान पर लड़की की लम्बाई, गोराई, शिक्षा, गृहकार्य में दक्षता। अब बारी आती है आर्थिक लेन-देन की, अगर आप इसमें चुक गए तो चुक गए, सबकुछ खत्म। लड़की की सारी योगता गौण हो गई। ऐसे में प्रश्न ये उठता है कि काश उच्च शिक्षा न देकर वही पैसे से तिलक दे देते तो अच्छा होता।
तमाम बेटियां एक बात को लेकर दुविधा में हैं। बचपन से ही ये बेटियां अपने लिए बेटे शब्द का सम्बोधन सुनते आ रही है। पूरे घरवाले बड़े गर्व से सुनाते हैं कि हम बेटा और बेटी मे कोई फर्क नहीं करते हैं। उन्हें बेटों के बराबर ही शिक्षा और अन्य सुविधाएं देते हैं। पर विवाह की दहलीज पर आते ही इस बेटी को समाज की सच्चाई समझ में आने लगती है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि आज उच्च शिक्षा की चाहत हर परिवार में है। दूसरी तरफ एकल परिवार परम्परा में हर व्यक्ति को आत्मनिर्भर होना पड़ रहा है ताकि विपरीत हालात में परिवार को अधिक तकलीफ न हो। व्यक्ति सुविधाओं और इच्छाओं की पूर्णता के दलदल में इतना धंस चुका है कि एक व्यक्ति की आमदनी से कुछ नहीं होता है। ऐसे में व्यक्ति अपने हमसफर की तरफ देखता है। इसलिए वह हमसफर अपने जैसा ही शिक्षित और योग्य चाहता है।वह ऐसी हो जो गृह कार्य के साथ-साथ बाहर का भी काम कर सके। परम्पराओं व आधुनिकता दोनों का ही निर्वाह एक साथ करने मे दक्ष हो। इसलिए इनका चुनाव बहुत ही बारीकी से होता है।
वेलेंटाइन डे पर मैंने फेसबुक पर एक लेख पढ़ा था, बहन-बेटियाँ सिर झुका कर चलती हैं इसलिए पुरुष वर्ग भी सर उठा कर चलता है। ‘क्यो भाई, पुरुष प्रधान समाज में सदियों से इस बात की मान्यता है कि जहां स्त्री की पूजा होती है वहीं देवताओ का वास होता है। बेटियां घर में रहती हैं तो परिवार की और गांव में रहती हैं तो बेटियाँ गांव के पंच की होती हैं। ये सारे कथन उस जमाने से चले आ रहे हैं जब राज्य में शायद ही कोई विद्वान, डाक्टर-इंजीनियर होते थे। आज तो हर घर शिक्षित हैं। विद्वता का प्रभाव समाज के हर कोने तक पहुंच चुका है। मंथन कीजिए कि क्या सचमुच हम शिक्षित और विद्वान हैं या शिक्षा की प्रवृत्ति ही बदल गई है? शिक्षा अगर सरलता, विनम्रता, सहजता, सहनशीलता का व्यवहारिक पक्ष है तो ये रावण बीच में कहां से आ गया, जहां आपकी गरिमा को सिर झुका कर चलने पर आप गर्व महसूस कर रहे हैं?

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here