मंदिर आप बिना स्नान किये भी जा सकते है, लेकिन तब मंदिर में आप होंगे भी, लेकिन मंदिर में प्रवेश न होगा. जो मंदिर इस आशा में गया होगा कि मंदिर उसे स्वच्छ कर दे, वह नासमझ है. जो हम मांगते हैं अस्तित्व से, उसकी हमें तैयारी चाहिए.
और हमें वही मिल सकता है, जिसके लिए हम तैयार होकर गए हैं. बाहर का स्नान तो ठीक है; भीतर का स्नान अत्यंत जरूरी है मंदिर में जाने से पूर्व. और भीतर आपने इतने रोग इकट्ठे कर रखे हैं. और जब मैं कहता हूं रोग, तो मैं कोई उपमा का उपयोग नहीं कर रहा हूं, कोई प्रतीक नहीं कह रहा हूं ठीक यही शाब्दिक अर्थ है मेरा- रोग इकट्ठे कर रखे हैं.
अभी तो जाना गया है कि आदमी के पचास से नब्बे प्रतिशत रोग उसके मन से पैदा हो रहा हैं. लेकिन परिणाम शरीर में होते हैं. क्योंकि मन से जहर धीरे-धीरे शरीर में भर जाता है. ध्यान में रेचन का हम प्रयोग कर रहे हैं, अगर आप हृदयपूर्वक कर सकें, तो आपका मन तो शुद्ध होगा ही, आप पाएंगे कि आपका शरीर भी. आपके शरीर में जो भी घट रहा है, उसके कहीं न कहीं सूत्र आपके मन में हैं.
और आपके मन में जो घट रहा है, वह शरीर से जुड़ा है. यह रेचन अगर हो पाए, तो ही आपको पता चल सकेगा कि आप कुछ और हैं और शरीर कुछ और है. क्यों? क्योंकि इस रेचन के होते ही आपके और शरीर के बीच जो हजार तरह के गठ-बंधन हो गए हैं रोगों के, वे टूट जाएंगे. आप रोगों के कारण शरीर से जुड़े हैं. आपको शरीर से जोड़ने की जो मौलिक संधि है, जोड़ है, वह रोग है.