सबसे ज़्यादा तरक्की उसी मुल्क में जहां जमीन अधिक, आबादी कम

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  • मेरी विदेश यात्रा, जिन्दगी की एक शिक्षा

यूरोप, एशिया, अफ़्रीका और अमेरिका समेत कई देशों में गया हूँ, कुछ बहुत विकसित, कुछ विकसित और कुछ विकास के पथ पर अग्रसर देश। सबसे ज़्यादा विकास उन देशों में देखा जहाँ क्षेत्रफल के हिसाब से आबादी कम है।

राकेश नंदन, रिटा. लेफ्टीनेंट जनरल/ लखनऊ
परिस्थितियाँ जीवन में कुछ ऐसी हुईं कि यात्रा अब मेरे लिए आवश्यकता बन गई है। कम उम्र में ही नौकरी पेशे में चले जाना (20 साल की उम्र में), क़िस्मत ऐसी कि पदोन्नति मिलती ही चली गयी! मुश्किल प्रतियोगिता होने के बावजूद, जिस वजह से फ़ौज में होने के बावजूद 60 साल की उम्र तक नौकरी कर पाया। यानी जीवन के 40 साल चाकरी, चाहे सेना की नौकरी क्यूँ न हो थी तो चाकरी!!
नौकरी ऐसी कि 24 घंटे वाली। किसी रिश्तेदार, दोस्त, महीम के सुख-दुःख में शामिल नहीं हो पाता था। यहाँ तक कि अपनी सगी बहन संगीता की शादी में भी बारात दरवाज़े से अभी लौटी भी नहीं थी और मैं अपना सूट्केस लेकर पटना एयरपोर्ट। एक भाई अपनी बहन को विदा भी नहीं कर पाया। पर ये मजबूरी रिश्तेदार कम ही समझते हैं अतः उनका शिकवा मुझसे से यही था कि “तू कौन ऐसन नौकरी करे ला, जे तोहरॉ छूटी ना मिले”! अतः मैंने फ़ैसला किया कि रिटायरमेंट के बाद कोई नौकरी नहीं करूँगा और वक़्त देकर रिश्तेदारों के पुराने शिकवे गिले दूर करूँगा। साथ ही बाकी वक़्त अपनी अर्द्धांगिनी को दूँगा जिसने मेरा विस्तृत परिवार संभाला, सारे रिश्ते नाते निभाए, बिना उफ़्फ़ किए हुए। मैं तो अपनी नौकरी में व्यस्त था। अतः आगे व्यस्त ना रहने का फ़ैसला इसी परिप्रेक्ष में था। पर भाग्य की विडम्बना ऐसी हुई कि रिटायर होने के पाँच माह पहले ही मेरी पत्नी का स्वर्गवास हो गया और रिटायरर्मेंट के अगले दिन ही मेरी माँ परलोक सिधार गई। बच्चे संस्कारी हैं (अपनी माँ की बदौलत, मेरी वजह से नहीं) मुझे छोड़ना नहीं चाहते। विदेश में रहने के बावजूद, साल में तीन से चार बार भारत आ जाते हैं। और वैसे ही तीन चार बार मैं जाता हूँ। इसी वजह से और ख़ुद को व्यस्त रखने के लिए मैं यात्राएं करता हूँ वरना अकेलापन मानसिक पीड़ा बढ़ा देगा।
कई देशों में गया हूँ यूरोप में, एशिया में,अफ़्रीका में और अमेरिका. कुछ बहुत विकसित, कुछ विकसित और कुछ विकास के पथ पर अग्रसर देश। सबसे ज़्यादा विकास उन देशों में देखा जहाँ क्षेत्रफल के हिसाब से आबादी कम है। साथ ही जहाँ सब्सिडी की मात्रा कम है। उदाहरण के तौर पे नार्वे में एक मेट्रो से एक किलोमीटर या 20 किलोमीटर की यात्रा का टिकट यहाँ के करेन्सी में 37 क्रोनर है जो भारतीय रुपए में क़रीब 350 ₹ हुआ। अगर मासिक पास बनाए तो वो भी तक़रीबन 700 क्रोनर याने 6,700 रुपए! उसी तरह पेट्रोल,डीज़ल,खाद्य पदार्थ पर कोई सब्सिडी नहीं है। इनकी सब्सिडी सीधे ग़रीब या
बेरोजगार को सोशल सिक्यरिटी के तौर पर जाता है जो इतना होता है कि वो अपना जीवन यापन साधारण तरीक़े से कर सके। जो पेशेवर हैं वो अपनी नौकरी के दौरान टैक्स के अलावा सोशल सिक्यरिटी की कटौती हर महीने अपनी तनख़्वाह से करवाते हैं। जिससे जब वो बेरोजगार हो तो उसे सोशल मिक्योरिटी मिल सके जब तक दूसरी नौकरी नहीं मिलती। सबसे बडी ख़ासियत जो देखी वो पर्यावरण को बचाने के लिए लेते हैं। आपको जानकर  आश्चर्य होगा कि अगर कोका कोला प्लास्टिक के बॉटल में ख़रीदा तो आपको MRP के ऊपर पर्यावरण कर ऊपर से देना होगा। वही मात्रा अगर आल्यूमीनियम के केन में लेंगे तो आपको शायद कुछ कम कर या कुछ भी नहीं देना पड़ेगा। ये इसलिए क्योंकि प्लास्टिक पर्यावरण को ख़राब करता है पर धातु नहीं। साथ ही लोगों में एक आदत होती है नियम क़ानून पालन करने की। ऐसा नहीं की अपने देश में लोग नियम नहीं पालन करते पर इन विकसित देशों में पालन करने वालों का प्रतिशत बहुत ज़्यादा है! मैं एक क्रूज़ पे यात्रा किया। जिसमें क़रीब 150 से ऊपर सैलानी थे। क़रीब सात घंटे की यात्रा थी। लोग खा पी रहे थे पर पूरे समय में मैंने किसी को नहीं देखा कुछ भी पानी में फेंकते हुए यहाँ तक कि सिगरेट butt भो नहीं। और हमारे यहाँ नदियों का हाल देखिए। हमने तो गंगा को भी नहीं छोड़ा। विदेशी लोग सस्ता महँगा कम देखते है पर गर्व के साथ अपने देश में बना महंगा समान ख़रीदना ज़्यादा पसंद करते हैं।
बड़े शहरों में तो यहाँ तक नियम है कि रिहायशी इलाक़ों में चार या पाँच माले से ऊपर मकान नहीं बनाए जाएँगे। शहर का आधे से दो तिहाई तक का क्षेत्रफल ग्रीन पट्टी होगी! अगर इसकी तुलना हमारे देश के महानगरों से करें तो हमारे बच्चे क्यूँ प्रदूषित हवा मेन साँस ले रहें है साफ़ हो जायेगा।दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद, बेंगलुरु आदि महानगर कंक्रीट के जंगल मात्र रह गये हैं।
जैसा कि दसौंधी सर ने अपने अमेरिकी यात्रा के संस्मरण में बताया था कि कॉलेज की पढ़ाई बहुत महँगी है पश्चिम में। तो यहाँ प्रतिशत के हिसाब से कम बच्चे कॉलेज की पढ़ाई करते हैं। पर सीनियर सेकंडेरी तक की पढ़ाई तक़रीबन सभी करते है। सीनियर सेकंडेरी की पढ़ाई के दौरान बच्चों को दो से तीन साल की जीविका से सम्बंधित vocational ट्रेनिंग दी जाती है! जिसके बाद उन्हें रोज़गार मिलने में आसानी होती है। ज़्यादातर बच्चे यही रास्ता अपनाते हैं जीविकौपार्जन के लिए! पर ये भी सत्य है कि किसी मेधावी बच्चे का कॉलेज काँ पढ़ाई संसाधन की कमी से बाधित नहीं होता। सारे यूनिवर्सटीज़ में सक्षम alumini द्वारा काफ़ी endowment योजना चलाई जाती है जहाँ से स्कालरशिप ऐसे ग़रीब पर मेधावी बच्चों को दी जायी है। बैंक की ब्याज दर इतनी कम है कि एजुकेशन लोन जो आसानी से मिल जाता है लेने में बच्चे हिचकते नहीं हैं!
किसी देश में चले जाइए, भारतीय मूल के लोगों की संख्या अच्छी मिलेगी जो काफ़ी अच्छा कर रहें हैं। अपने देश में भी बहुत उच्च श्रेणी के पेशेवर हैं और बुद्धिजीवी भी। फिर भी हम अब तक एक समृद्ध समाज नहीं बना पाए। विकास हो रहा है। सरकार पैसे भी ख़र्च कर रही है सामाजिक बदलाव लाने के लिए पर फिर भी कुछ ख़ास सुधार नहीं हो रहा है। सोचता हूँ इसका क्या कारण हो सकता है? पर जबाब चंद विंदुओं पर अटक कर रह जाता है। क्या हममें राष्ट्रीय और सामाजिक चरित्र की कमी है? क्या हमारे लिए स्वार्थसिद्धि समाज से ज़्यादा अहमियत रखती है? क्या ग़ुलामी के इतिहास की वजह से हम एक रिएक्शन के तौर पर अनुशासन में रहना नहीं चाहते। क्या हमें अपने अगली पीढी के लिए कोई परवाह नहीं! क्या हमारे बीच दूरगामी सोच वाले लीडर्स की कमी है? शायद हमारी आदत बन चुकी है पूरी दुनिया में ग़लती निकालने की, पर ख़ुद को नहीं बदलेंगे। और बहुत कुछ कारण भी हो सकता है हमारी धीमी विकास दर का, पर शायद मेरा सपना अपने देश को विकसित देशों की श्रेणी में देखने का एक सपना ही रह जाएगा। अपने जीवनकाल में शायद ना देख पाऊँ।
यह लेख महज एक कोशिश मात्र है अपने विचारों को आप सबके समक्ष रखने कि जो मैंने महसूस किया अपने विदेश भ्रमण के दौरान! 
Comments on facebook group:
Rakesh Sharma: आपने जिन बातों को जिक्र किया है वह सोचने वाली बात है। हम अपने व्यक्तिगत विकास की बात तो बहुत ज्यादे सोचते हैं परन्तु राष्ट्रवादी के मामले में पिछड़ जाते हैं।आपने जिन विन्दुओं पर ध्यान आकर्षित किया है उस पर हमसब ध्यान नहीं दिये तो वह दिन दुर भी नहीं की हम फिर वहीं पहूँच जायेंगे, जहाँ थे। कुल मिलाकर बहुत ही सार्गर्भित लेख।गागर में सागर भर दिया है आपने।
 
Dilipkumar Pankaj: बेहद प्रेरक सर। इसमें कतई संदेह नहीं कि कुछ विकसित देशों की व्यवस्था हमें भौचक करने वाली है। दरअसल स्वार्थ और आत्मतुष्टि के अहंकार में हम इस कदर आकंठ डूबे हुए हैं कि हमसे कोई बदलाव आत्मसात होता ही नहीं। आपने सही कहा कि हमें अगली पीढ़ी की कोई चिंता ही नहीं है। इसे राष्ट्रीय भावना की कमी भी कह सकते हैं। हमारे यहां कार लोन सस्ता है, जबकि शिक्षा लोन महंगा। यह स्थिति तभी बदलेगी जन व्यापक जनजागृति आएगी।
 
Ram Sundar Dasaundhi: समाज में राष्ट्रीय और सामाजिक चरित्र उन्नयन के लिए जागरूकता उत्पन्न करने की आवश्यकता है। 
 
Rai Shiva Kant: आपने अपनी लेखनी से अनुभव साझा किया । इससे कुछ न कुछ लोगों को सीखने को अवश्य मिलेगा।
 
Pankaj Kumar Sharma बेहतरीन संस्मरण के साथ संवेदनशील पहलू भी…..
Ranjan Kumar: आपके इस लेख में सारी ख़ूबियाँ भरी हुई है, देश सेवा (पूरी ज़िन्दगी ), परिवार सेवा, समाज सेवा आदि आदि । वैसे मैं तो देश भ्रमण करने वाले बहुत लोगों को जानता हूँ लेकिन आपके या श्री दसौंधिजी सर के द्वारा देश भ्रमण के दौरान किया गया वर्णन या चित्रण करने वाले बहुत ही कम देखें हैं । वैसे मैं समझता हूँ कि नौकरी से ज़्यादा धन आप अवकाशप्राप्त करने के बाद अर्जित कर सकते थे, लेकिन आपने उसका त्याग कर सारा समय अपने बच्चों, सम्बन्धियों और समाज को दिया ।
Suman Rai: पढ़कर आनंद आ गया । जिस तरह आप अपना समय अपने बच्चों और अपनों को दे रहे है वो उन सब के लिए बहुत ही खूबसूरत पल है आप जैसे अच्छे इंसान से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। 
 
Ram Choudhary: अतिसुन्दर लेख एवं भावनाओं की अभिव्यक्ति । बहुत अच्छा लगा। हमारी शुभकामना है। सदा सुखी और स्वस्थ रहो ।
 
P.D. Sharma: प्रेरणादायक यात्रा वृतांत के लिए धन्यवाद. एक सैन्य पदाधिकारी रहने के बाबजूद इतना अच्छा हिंदी लिखना भी काबीले तारीफ है.
 
Vinita Sharma: किसी भी देश के विकास में वहां के नागरिकों का बहुत बड़ा योगदान होता है। हमारे देश में इसी बात की कमी है ।पूरे विश्व को सभ्यता का पाठ पढ़ाने वाला भारत आज पिछड़ा हुआ है। शायद मूल कारण भारी जनसंख्या है । भ्रष्टाचार भी व्याप्त है ।
 
Kailash C Sharma: देश के कुछ लोग देश को आगे ले जाना चाहते हैं और एक तबका अंधाधुंध अनपढों की आबादी बढाकर प्रगति को जोरशोर से पीछे धकेलने पर लगा है।
 
Sangita Roy: वाह भैया!सबसे पहले तो देवनागरी में पहली बार इतने सुदर तरीके से अपनी बात हम सब तक पहुँचाने के लिये आपको साधुवाद।
हमारे देश की विकास दर की धीमी गति के लिये आपने जिन बिन्दुओं का उल्लेख किया है उससे मैं पूरी तरह सहमत हूँ।
 
LaxmiNarayan R Sharma: एक सच्चे भारतीय को शत शत प्रणाम।बडा मार्मिक लगा,अपनो से अपनी विवशता बताकर। आपका शेष जीवन आनंद मय बीते।
 
Tripurari Roy Brahmbhatta: सबसे पहले प्रणाम । पहली बार देवनागरी में लिखने के लिए धन्यवाद। अपनी भाषा में भाव और विचार भी खुल कर आते हैं । आपके आलेख की भाव भी अच्छी है और व्याकरण भी ।
रही बात विदेशों की तो साफ सफाई और शिक्षा के मामले में तो हम उनसे जरूर पीछे हैं ही
 
Anil Sharma: तो हमें कब दर्शन दे रहें हैं , अहमदनगर , महाराष्ट्र में , ऐसी शिकायतें हर सैनिकों के साथ चिपकी चिपकी हुई हैं ।.
 
Deorath Kumar: बहुत प्रेरक और जागरूक करने वाला लेख.
 
Ajay Rai: आपने अपनी लेखनी से आने वाली पीढ़ी को बहुत ही उम्दा संदेश भी दिया है जो उनके भविष्य में काम आएगी।
 
Arun Sajjan: बहुत हु प्रशंसनीय विवरण और आत्मानुभूति है।
Rekha Rai: बहुत ही सराहनीय ढंग से आपने अपनी लेखनी के माध्यम से अपनी प्रतिक्रिया सामने रखी है। आपका लेख नवयुवको के लिए प्रेरणादायी है।
 
Asha Sharma: अपने देश को हम अपना घर मानकर चले।और ये सोचे की आने वाली पीढ़ी को कुछ देकर जाना है जैसे स्वच्छता , समृद्धि ,खुशहाली…जैसे मेरी बेटी ने बचपन से ही हम लोगो को कही थूको नही कूड़ा नही फेको की आदत डाली है ।ये अब हमारी आदत हो गई ।
 
Tuhin Kumar: अपने तीनों महादेशों की यात्रा और जीवन की अनुभूति से भारत के अब तक विकसित राष्ट्र की श्रेणी में नही आ पाने का जो दर्द बयां किया है वह जायज है।हमारे बाद जो मुल्क आज़ाद हुए जो छेत्रफल जनसंख्या में कम थे काफी आगे निकल गये।पिछड़ने के जो कुछ कारण गिनाएं हैं वो भी सही है।हम घोटाला आलोचना स्वार्थ स्वच्छंदता आत्म प्रचार दहेज बेईमानी अकर्मण्यता हीनभावना आदि अनेक दुर्गुणों के शिकार हो गए।और नकलची भी हो गए।हम विदेशी बोली पहनावे केश विन्यास सामग्री और संसकृति के अनुयायी हो गए । आत्मकेंद्रित और असामाजिक हो गए। परंतु अब भी समस्त जन ऐसे नहीं हैं।
Promod Kumar Maharaj: मैं आपकी हिन्दी का मुराद हो गया हूँ। अँग्रेजी का तो 1997 में हीं हो गया था। सर आप जो कुछ भी लिखें हैं, वह सिर्फ सकारात्मक मानसिकता का हीं द्मोतक है। विशेष फिर कभी रूबरू होने पर। कोटिशः प्रणाम।
 
Geeta Bhatt: बेहतरीन. पोस्ट कितनी बारीकी से वर्णन किया है पढकर अच्छा लगा ।मैने रिपीट पढा ।
 
Gorakh Nath Sharma: आपके भाव, भाषा और ब्याकरण तीनों उतक्रिष्ट तथा प्रेरणा दायक है!
 
Mahendra Pratap Bhatt बेहतरीन और त्रुटिहीन पोस्ट।
 
Brajesh Kumar Bhatt: आपकी लेखनी अनुकरणीय है। आपके अगले लेख का इंतज़ार रहेगा। साथ ही जिस चेतना की बात आप कर रहे है उसे जगाने के लिए ना जाने कब कोई जम्बुबांन फिर से अवतरित हो इस धरती में मानव रूपी हनुमान को जगाने के लिए।

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