इस विषाद की दवा भी गीता का ज्ञान ही

0
1101

ब्रिटेन ही नहीं, भारत के चिकित्सा जगत ने भी आज से संदर्भ में श्रीमद्भगवदगीता के महत्व को समझा है। एंडोक्राइन सोसायटी ऑफ इंडिया के जर्नल इंडियन जर्नल ऑफ एंडोक्रिनोलॉजी एंड मेटाबॉलिज्म में कई श्लोकों की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि स्वास्थ्यकर्मियों के लिए श्रीमद्भगवदगीता के क्या मायने हैं। इस शोध को तैयार करने में देश-विदेश के 19 चिकित्सा संस्थानों के चिकित्सकों के सहयोग लिए गए हैं।

श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व भी बड़ा अद्भुत है, बड़ा अनूठा है। हजारों साल पुराने उनके संदेश सर्वकालिक हैं। लगता ही नहीं कि उनकी बातें आज के संदर्भ में नहीं हैं। तभी उनकी प्रासंगिकता हर युग में, हर काल में बनी रहती है। आज भी है। श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव इस बार ऐसे वक्त में है, जब कोरोना महामारी के कारण सर्वत्र भय, संताप और दुविधा की स्थिति है। मानव जाति के विरूद्ध अभूतपूर्व वैश्विक युद्ध जैसे हालात हैं। सोशल मीडिया पर यह पंक्ति तेजी से वायरल है कि अस्पताल युद्ध के मैदान बने हुए हैं और स्वस्थ्यकर्मी सैनिकों की भूमिका में हैं। इस वायरल बात में जितनी सच्चाई है, उतनी ही सच्चाई इस बात में भी है कि जिस तरह अर्जुन विषाद में डूबा हुआ था, आज लगभग वैसी ही स्थिति स्वास्थ्यकर्मियों और अन्य लोगों की है। बस, संदर्भ और वजह बदले हुए हैं।
ब्रिटेन के टेमसाइड अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सक डॉ आनंद कुलकर्णी ने कोविड-19 के आलोक में श्रीमद्भगवदगीता की सुंदर व्याख्या की है। वे कोविड-19 से संक्रमित लोगों की दर्दनाक मौतों के साक्षी रहे हैं तो खतरों से खेलते स्वास्थ्यकर्मियों और उनके परिवार वालों की भावनाओं से भी रू-ब-रू होते रहे हैं। दुनिया भर की घटनाओं का अध्ययन भी किया है। विशेष तौर से भारत का। उन्हें ऐसे पीड़ादायक वक्त में अवसाद से उबरने और कर्मयोग के मार्ग पर अग्रसर रहने का एक ही उपाय सूझा है और वह है श्रीमद्भगवदगीता का स्मरण, उसके संदेशों से सीख। तभी घने अंधेरे के बावजूद पत्थरीली राह से गुजर जाना मुमकिन हो सकता है।
भारतीय मूल के श्री कुलकर्णी श्रीमद्भगवदगीता के संदेशों से अभिभूत हैं। वे कहते हैं कि इस महामारी के विरूद्ध सैनिकों की तरह काम करने वाले स्वास्थ्यकर्मियों के पास अर्जुन जैसे ही कुछ व्यावहारिक तर्क और चिंताएं हैं। इसलिए उन्हें मनोचिकित्सा की आवश्यकता है और यह चिकित्सा श्रीमद्भगवदगीता को अस्त्र बनाकर ही संभव है। महाभारत का अर्जुन एक सैनिक के रूप में जिस तरह चिंतित था कि युद्ध छिड़ने से उसके अपने लोगों की जानें चली जाएंगी। उसी तरह स्वास्थ्यकर्मियों के परिवार के लोग भी अपने प्रियजनों को लेकर चिंतित रहते हैं। फिर भी स्वास्थ्यकर्मियों को इन भावनाओं को पीछे रखना पड़ता है। ठीक उसी तरह जैसे श्रीकृष्ण की सलाह पर अर्जुन को अपनी भावनाओं को दरकिनार करना पड़ा था।
ब्रिटेन ही नहीं, भारत के चिकित्सा जगत ने भी आज से संदर्भ में श्रीमद्भगवदगीता के महत्व को समझा है। एंडोक्राइन सोसायटी ऑफ इंडिया के जर्नल इंडियन जर्नल ऑफ एंडोक्रिनोलॉजी एंड मेटाबॉलिज्म में कई श्लोकों की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि स्वास्थ्यकर्मियों के लिए श्रीमद्भगवदगीता के क्या मायने हैं। इस शोध प्रबंध को तैयार करने में देश-विदेश के 19 चिकित्सा संस्थानों के चिकित्सकों के सहयोग लिए गए हैं। जर्नल के मुताबिक, गीता ऐसा मनोवैज्ञानिक ग्रंथ है कि चिकित्सकों को प्रेरित करता है कि वे सौहार्द्रपूर्ण व्यवहार रखते हुए अपने कौशल का बेहतर प्रदर्शन किस तरह कर सकते हैं। इस जर्नल के एक अन्य यह शोध पत्र खासतौर से मधुमेह रोगियों को अवसाद से उबारने में श्रीमद्भगवदगीता के संदेशों की भूमिका को लेकर है। उसमें कहा गया है कि श्रीमद्भगवदगीता में वह शक्ति है वह कि किसी भी परिस्थिति का सामना करने के लिए समर्थ बनाती है।
श्रीमद्भगवदगीता का अध्याय ही अर्जुन के विषाद से शुरू होता है और बाकी के सत्रह अध्यायों में श्रीकृष्ण ने तरह-तरह से समझाया है कि मनुष्य को अपने मन की इस विषादमयी परिस्थितियों से कैसे लोहा लेना चाहिए। श्रीकृष्ण के संदेशों को किसी धर्मिक व्याख्यान या अध्यात्मिक सांचे में न देखकर ऐसे योग के रूप में देखने की जरूरत है, जिसका कोई रंग नहीं होता। वह विशुद्ध योग है, योग का मनोविज्ञान है। बीती सदी के महानतम संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे कि मन के विषाद को दूर करने के लिए मनुष्य को केवल एक रास्ता अपनाना है और वह रास्ता है योग का। योग से ही विषाद दूर होगा। विषाद पर चिंतन करने से विषाद दूर नहीं होगा। इसलिए कि जो आदमी अंधा है, उसे कितना ही अच्छा चश्मा दे दो, वह देख नहीं सकता। परन्तु गीता में वह शक्ति है कि उससे प्रेरणा लेने वाला तमाम विपरीत परिस्थितियों से जूझ सकता है और विषाद से उबर भी सकता है।
आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर ने जन्माष्टमी के मौके पर श्रीकृष्ण के चरित्र को बिल्कुल अलग तरीके से रेखांकित करके आज के संदर्म में मानवता को बेहतर संदेश देने की कोशिश की है। श्रीश्री कहते हैं कि हमारी प्राचीन कहानियों का सौंदर्य यह है कि वे कभी भी विशेष स्थान या विशेष समय पर नहीं बनाई गई हैं। रामायण या महाभारत प्राचीन काल में घटी घटनाएं मात्र नहीं हैं। ये हमारे जीवन में रोज घटती हैं। इन कहानियों का सार शाश्वत है। श्री कृष्ण जन्म की कहानी का भी गूढ़ अर्थ है। श्री कृष्ण हम सबके भीतर एक आकर्षक और आनंदमय धारा हैं। जब मन में कोई बेचैनी, चिंता या इच्छा न हो तब ही हम गहरा विश्राम पा सकते हैं और गहरे विश्राम में ही श्री कृष्ण का जन्म होता है। यह समाज में खुशी की एक लहर लाने का समय है – यही जन्माष्टमी का संदेश है। पर समय विषाद योग का हो तब वे ज्यादा ही प्रासंगिक हो जाते हैं।
सच है कि गीता योग और मनोविज्ञान का अद्वितीय ग्रंथ है। यह हमें जीवन, जीवन की समस्याओं और उन समस्याओं को सुलझाने की विधियों के बारे में बताती है। कोरोनाकाल ही नहीं, बल्कि आम दिनों में भी हम सबके जीवन में महाभारत चलते रहता है और गीता से प्रेरणा मिलती है कि सावधानी और बुद्धिमानी से जीवन को संचालित किया जा सकता है। ताकि संग्राम में जीत हासिल हो सके। ओशो तो गीता पर इतने फिदा रहे हैं कि उन्होंने बार-बार कहा कि गीता मनुष्य जाति का पहला मनोविज्ञान है। मेरा वश चले तो मैं कृष्ण को मनोविज्ञान का पिता कहूं। श्रीकृष्ण ने ही पहली बार दुविधाग्रस्त चित्त, माइंड इन कांफ्लिक्ट, संतापग्रस्त मन और टूटे हुए संकल्प को अखंड, इंटिग्रेट करने की बात की।
ऐसे में श्रीमद्भगवदगीता का विषाद योग औऱ उस आलोक में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दी गई शिक्षा आज भी प्रासंगिक है। तभी स्वास्थ्यकर्मियों को गीता का ज्ञान भा रहा है। आइए, इस बार की जनमाष्टमी के मौके पर हम सब भी श्रीमद्भगवदगीता के संदेशों का स्मरण करें और कोरोना के खिलाफ युद्ध विवेकपूर्ण तरीके से लड़ने का संकल्प लें।
(लेखक https://ushakaal.com/ के संपादक और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here