राज कपूर की फिल्मों में जीवन के हर रंग के लिए गाने होते थे

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सपनों का सौदागर: राज कपूर (दूसरी किश्त)

राज़ साब को गानों की बहुत अच्छी समझ थी। उनकी फिल्मों की सफलता में उनके गानों का बहुत बड़ा हाथ होता था। उनकी फिल्मों में जीवन के हर रंग के लिए गाने होते थे, जैसे: प्यार मोहब्बत के रंग के लिए- ये रात भीगी भीगी, प्यार हुआ इकरार हुआ है, हर दिल जो प्यार करेगा वो गाना गायेगा।

अभिषेक भट्ट/लेखक

वैसे तो भारतीय सिनेमा की शुरुआत 1913 से ही हो चुकी थी , मूक फ़िल्म “राजा हरिश्चंद्र” के द्वारा जो बेहद कामयाब रही थी क्योंकि चलती तस्वीरों को तब की जनता ने पहली बार पर्दे पर देखा था साथ ही बाद में पहली बोलती फ़िल्म “आलम आरा” ने सिनेप्रेमियों को फ़िल्म में सम्वाद भी सुनने का मौका दिया। फिर तो “अछूत कन्या”, “देवदास”, “दो बीघा जमीन” और “प्यासा” जैसी फिल्मों ने तो सिनेमा को नई ऊंचाई ही दे दी, लेकिन सिनेमा फिर भी अब तक ग्लैमरस यानी सितारों की चकाचौंध से लबरेज़ नहीं हुआ था। सिनेमा में ग्लैमर को लाये राज कपूर।
राज साब की दो फिल्में “आवारा”  और “श्री 420” ने 50 के दशक के महानगरों की नंगी हक़ीक़त को दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया। उच्च वर्ग में उस रूढ़िवादी दौर में भी महिलाओं के विलासितापूर्ण जीवनशैली, पुरुषों के महत्वाकांक्षी मंसूबे और निम्न वर्ग का उच्च वर्ग द्वारा शोषण जैसी बातों को राज साब ने बड़ी मादकता और सशक्त तरीके से दिखाया।
राज कपूर हालांकि शादीशुदा थे, लेकिन अभिनेत्री नर्गिस के साथ उनकी जोड़ी दर्शकों के बीच बहुत लोकप्रिय थी और नर्गिस के साथ उनके प्रेम के किस्से भी बड़े मशहूर हुए।
बाद में मीना कुमारी के साथ भी राज़ साब के सम्बन्ध बने।
राज कपूर की एक टीम हुआ करती थी। हेरोइन में नर्गिस, गीतकारों में शैलेंद्र औऱ हसरत जयपुरी, संगीतकारों में शंकर-जयकिशन और पार्श्वगायन में गायक मुकेश व मन्ना डे औऱ गायिका लता मंगेशकर ने राज साब के साथ सबसे ज्यादा बार काम किया।
राज़ साब को गानों की बहुत अच्छी समझ थी। उनकी फिल्मों की सफलता में उनके गानों का बहुत बड़ा हाथ होता था। उनकी फिल्मों में जीवन के हर रंग के लिए गाने होते थे, जैसे: प्यार मोहब्बत के रंग के लिए- ये रात भीगी भीगी, प्यार हुआ इकरार हुआ है, हर दिल जो प्यार करेगा वो गाना गायेगा। ग़म के रंग – एक बेवफा से प्यार किया, रमैया वस्तावैया, मेरी किस्मत में तू नही शायद। दोस्ती के रंग – दोस्त दोस्त ना रहा, दिल का हाल सुने दिलवाला।चुलबुले रंग- मैं का करूँ राम मुझे बुड्ढा मिल गया, झूठ बोले कौवा काटे। अध्यात्म व भजन – यशोमति मैया से बोले नन्दलाला, एक राधा एक मीरा। देशभक्ति के रंग – हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है, मेरा जूता है जापानी…ये पतलून इंग्लिशतानी…सर पे लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिंदुस्तानी आदि आदि।
आर के फिल्म्स की एक खासियत और भी हुआ करती थी कि इनकी सारी फिल्मों में हीरो का रोल कपूर खानदान का ही कोई हीरो जैसे राज साब खुद,शम्मी, शशि, रणधीर, राजीव या ऋषि कपूर करते।
आर के स्टूडियोज़ की होली बहुत ही प्रसिद्ध थी क्योंकि पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री के सारे लोग मिलकर राज साब के साथ खूब जम कर होली खेलते, गाना बजाना होता और खाना पीना भी।
सत्तर के दशक की बात है। छह सालों में पूरी हुई फ़िल्म ‘मेरा नाम जोकर’ बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह पिट गयी थी और राज कपूर की आर के प्रोडक्शंस घाटे में चली गई। कहा गया कि राज कपूर अपनी ही यादों के जंगल में खो गए हैं अौर फिल्म बहुत लम्बी हो गई है। लेकिन इस ‘अंत’ की घोषणा को राज कपूर ने चैलेंज के तौर पर लिया।
उन्होंने जवाब में ऋषि कपूर और डिंपल कपाड़िया को लेकर फ़िल्म ‘बॉबी’ बनाई। यह फ़िल्म घिसी-पिटी प्रेम कहानियों से अलग टीनएज प्रेम कहानियों की संभावनाअों और संवेदनाअों की फिल्म थी। फिल्म दो नए चेहरों के साथ ले कर आई, बच्चन अौर राजेश खन्ना के दौर में भी सबसे सुपरहिट फिल्म साबित हुई।
बॉबी ने बॉबी जैसी अन्य प्रेम कहानियों का ट्रेंड ही शुरु कर दिया बॉलीवुड में जो 80 और 90 के दशक तक जारी रहा।
मेरा नाम जोकर जो कि अपने समय से बहुत आगे की फ़िल्म थी दर्शकों के पल्ले नहीं पड़ी हालांकि बाद में “मेरा नाम जोकर” को भी बहुत सराहा गया औऱ आज इस फ़िल्म को कल्ट क्लासिक स्टेटस हासिल है।
1970 के दशक में राज कपूर ने ‘राम तेरी गंगा मैली’, ‘सत्यम शिवम् सुन्दरम’ और ‘प्रेम रोग’ जैसी स्त्री विषयक फ़िल्में बनाई। ये फ़िल्में विषयों अौर उनके चित्रण  को लेकर बोल्ड थीं, जिन्हें ज़माने और परंपराओं की सहमति की कोई दरकार नही थी। हालांकि ये फ़िल्में अपनी अपने विषयों में सेक्सुअलिटी और जेंडर रोल की रूढ़िवादिता को खंडित करने की ताकत रखती थीं।
1988 में अपनी अंतिम तस्वीर “हिना” की तैयारी के दौरान ही भयंकर रूप से दमे के रोग से ग्रस्त राज साब इस दुनिया को अलविदा कह गए, लेकिन उनके अंतिम शब्द, “The Show must go on….” हमेशा उनके चाहने वालों के दिलों में गूंजते रहे और “हिना” बनी जो हिंदुस्तान पाकिस्तान के बीच प्यार मोहब्बत का संदेश देती थी, दोनों ही मुल्कों हिंदुस्तान और पाकिस्तान में मुक्कमल तौर पर बेहद कामयाब रही।
राज कपूर को कला के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए भारत सरकार द्वारा 1971 में पदम् भूषण से सम्मानित किया गया व मृत्यु से कुछ अवधि पूर्व 1987 में दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा गया।
राज साब को भारतीय सिने जगत हमेशा फिल्मों में बदलाव औऱ बोल्ड सब्जेक्ट को अहमियत देने के लिए गर्व से याद करेगा। हालांकि एक फ़िल्म ऐसी भी थी जो उनकी तो नहीं थी लेकिन उसको देखते वक़्त राज साब ने एक आह सी भरी थी और कहा था, “काश ऐसी एक फ़िल्म मैं भी बना पाता।” वो फ़िल्म थी बिमल रॉय की “दो बीघा ज़मीन”
(कल बात करेंगे मशहूर फिल्म निर्माता निर्देशक बिमल रॉय के फिल्मी सफर की)

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