जब मैंने इंदिरा गांधी की हत्या से भड़के सिख दंगे के भयावह मंजर की रिपोर्टिंग की

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31 अक्टूबर की उस रात हम सारे पत्रकार अपने-अपने घर नहीं गए

शहर में रिपोर्टिंग के लिए निकला तो पता चला कि कई जगहों पर सिखों के घर और दुकानें जलाई जा रही हैं, पर पुलिस निरीह लोगों की कोई मदद नहीं कर रही। लालपुर चौक पर मेरे एक सरदार दोस्त की जूते की दुकान थी। पहुंचा तो देखा कि उसकी दुकानें धू-धूकर जल रही है।

पत्रकारिता का सफरनामा-3, लेखक राय तपन भारती, वरिष्ठ पत्रकार

इतिहास की वह भयावह तारीख थी। 31 अक्टूबर, 1984। तब मैं रांची शहर में था। मैं सुबह के वक्त दैनिक #प्रभात खबर के दफ्तर जाने की तैयारी कर रहा था कि सुबह 11 बजे संपादक की दैनिक बैठक में शामिल हो सकूं। तभी रेडियो पर खबर सुनाई पड़ी कि दिल्ली के सफदरजंग रोड स्थित प्रधानमंत्री आवास पर दो सिख सिपाहियों ने #इंदिरा गांधी को गोली मार दी है और उन्हें तत्काल एम्स ले जाया गया है। यह खबर सुनकर मैं हैरान हो गया और आशंका सताने लगी कि अब देश में कुछ उथल-पुथल होगा। आज 33 साल बाद जब इतिहास के काले पन्ने का जिक्र करने बैठा हूं तो मुझे आश्चर्य हो रहा है कि अखबार में मेरी नौकरी को महज तीने महीने ही बीते थे पर संपादक ने मुझसे सिख दंगे पर बहुत सारी स्टोरी लिखवाई। यह उनका बड़प्पन था कि उन्हें मेरी कलम पर भी भरोसा था।
तब रांची के मेरे डोरंडा स्थित आवास में एक लैंडलाइन फोन हुआ करता था। फोन पर मैंने संपादक एसएन #विनोद जी से चर्चा की कि प्रधानमंत्री को गोली मार दी गई है। मैंने संपादकजी को बताया कि 1984 की जनवरी में ही तो इंदिरा गांधी रांची में आयोजित आल इंडिया साइंस कांग्रेस में आई थी तो सबसे युवा पत्रकार के रुप में उनसे मिलने वाला मैं ही था। आनन-फानन में मैं कोकर स्थित प्रभात खबर पहुंचा। विनोदजी के अलावा सुनील श्रीवास्तव, कल्याण सिन्हा, विजय भास्कर, दीपक अंबष्ट समेत बहुत सारे पत्रकार साथी प्रेस पहुंच चुके थे। तब तक टेलिप्रिंटर और बीबीसी रेडियो से खबर आने लगी कि इंदिरा गांधी के प्राण पखेरु उड़ चुके हैं और पीएम की हत्या से नाराज लोगों ने रांची, बोकारो, दिल्ली, कानपुर समेत देश के तमाम शहरों में सिख विरोधी दंगे शुरू हो गए। संपादक ने बोकारो के सिख दंगे पर एक विशेष संपादकीय लिखा, “बोकारो का काला इस्पाती धुंआ”।
हम सब पत्रकारों ने आनन-फानन में शाम 4 बजे तक दैनिक प्रभात खबर का स्पेशल बुलेटिन निकाला जो दो पेज का था। मैं दंगा फैले इलाकों का दौरा करने जा रहा था। संपादकजी से कहा- मुझे भी स्पेशल बुलेटिन की 200 कॉपियां बेचने के लिए दीजिए। तब शरीर में गजब की ऊर्जा थी। मैं रांची रेलवे स्टेशन पहुंचा और वहां एक साथी की मदद से आधे घंटे में अखबार की 200 कॉपियां बेच दीं। पूरे शहर में 50 हजार कॉपियां बिकी होंगी।
इसके बाद शहर में रिपोर्टिंग के लिए निकला तो पता चला कि कई जगहों पर सिखों के घर और दुकानें जलाई जा रही हैं, पर पुलिस निरीह लोगों की कोई मदद नहीं कर रही। लालपुर चौक पर मेरे एक सरदार दोस्त की जूते की दुकान थी। पहुंचा तो देखा कि उसकी दुकानें धू-धूकर जल रही है। उसके घर गया तो पता लगा कि एक पड़ोसी ने उसके परिवार को सुरक्षित जगह पर पहुंचा दिया था। तब तक बोकारो, धनबाद, टाटानगर से भी सिख विरोधी दंगे की भी खबरें आने लगी।
इंदिरा गांधी की उनके अंगरक्षकों द्वारा हत्या किए जाने के बाद देशभर में सिख विरोधी दंगा भड़क गए जिसमें आधिकारिक रूप से 2,733 सिखों को निशाना बनाया गया। गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मरने वालों की संख्या 3,870 थी। दंगों का सबसे अधिक असर दिल्ली पर हुआ। देशभर में सिखों के घरों और उनकी दुकानों को लगातार हिंसा का निशाना बनाया गया। दिल्ली में खासकर मध्यम और उच्च मध्यमवर्गीय सिख इलाकों को योजनाबद्ध तरीके से निशाना बनाया गया। राजधानी के लाजपतनगर, जंगपुरा, डिफेंस कॉलोनी, फ्रेंड्स कॉलोनी, महारानी बाग, पटेल नगर, सफदरजंग एनक्लेव, पंजाबी बाग आदि कॉलोनियों में हिंसा का तांडव रचा गया। गुरुद्वारों, दुकानों, घरों को लूट लिया गया और उसके बाद उन्हें आग के हवाले कर दिया गया।
इंदिरा गांधी के मरने के बाद प्रधानमंत्री बने उनके बेटे राजीव गांधी ने हिंसा के जवाब में कहा, “जब कोई मजबूत पेड़ गिरता है तब उसके आसपास की धरती हिलती ही है।” इस दौरान भारत के राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह का काफीला दंगाइयों के गुस्से का पहला निशाना बना। भीड़ ने तीन गाड़ियों को बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया। बुलेट-प्रूफ गाड़ी में होने के चलते ज्ञानी जैल सिंह बच गए।
सिख दंगे की जांच कर रही #रंगनाथ मिश्रा कमिटी के रिपोर्ट के अनुसार- दिल्ली के बाद सबसे भीषण दंगा कानपुर में हुआ था, यहां 127 सिख मारे गए थे। ऐसे में 33 साल बाद कानपुर के 32 उन लोगों की पहचान कर ली गई है, जिन पर 84 के दंगे में कानपुर शहर में सिख समुदाय का कत्लेआम करने का आरोप है। सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रसून कुमार के मुताबिक, उस समय की सरकारों ने किसी भी सबूत को न ही जिंदा रखने की कोशिश की और न ही कोई कार्रवाई करने की कोशि‍श की।
इंदिरा की हत्या क्यों : पंजाब में सिख आतंकवाद को दबाने के लिए इंदिरागांधी ने 5 जून 1984 को ऑपरेशन ब्लू स्टार शुरू करवाया जिसके चलते प्रमुख आतंकवादी भिंडरावाला सहित कई की मौत हो गई और इस कार्रवाई में स्वर्ण मंदिर के कुछ हिस्सों को क्षति पहुंची। पंजाब में #भिंडरावाले के नेतृत्व में अलगाववादी ताकतें सिर उठाने लगी थीं और उन ताकतों को पाकिस्तान से हवा मिल रही थी। पंजाब में भिंडरावाले का उदय इंदिरा गांधी की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं के कारण हुआ था। लेकिन बाद में भिंडरावाले की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं देश को तोड़ने की हद तक बढ़ गई थीं। जो भी लोग पंजाब में अलगाववादियों का विरोध करते थे, उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता था। भिंडरावाले की मौत का बदला लेने के लिए ही इंदिरा गांधी की हत्या कर दी। आज भी तमाम सिख परिवार हैं, जिनके दिलों में 1984 के दंगों की चोट के घाव आज भी ताजा हैं।
31 अक्टूबर की उस रात हम सारे पत्रकार #घर नहीं गए। टेंट हाउस से बिछावन मंगाया गया और प्रेस में ही बिछावन बिछाकर आराम किया ताकि सुबह प्रात संस्करण के बाद सुबह 10 बजे के बाद एक और स्पेशल बुलेटिन निकाला जा सके। शायद हम सब इसलिए भी घर नहीं गए कि दंगे में घर जाने का जोखिम हम क्यों उठाएं।
(कल तक #इंतजार कीजिए मेरी अगली #किस्त का)
Comments on Facebook: 
Ranu Kulshrestha: बेहद दर्दनाक…. तब भी और अब भी… दुख की बात यह है कि लोग अपनी इंसानियात और समझ इस स्तर की राजनीति के हवाले कर देते हैं… बार बार, हर बार 😧
 
Ssangeeta Tiwari: सिक्खों पर बहुत अत्याचार हुए थे,,,,,उस समय
 
Vinay Kumar: वेहद खौफनाक मंजर ….
 
Rekha Rai: कितनी अच्छी बात है कि आपकी पत्रकारिता की वजह से हम सबको ये सारी जानकारियाँ हो रही है।उस वक्त की घटना कितनी दर्दनाक रही होगी।
 
Deorath Kumar: आपके सफरनामा से हम सब भी उन बीते लम्हों को महसूस कर रहे हैं
 
Rakesh Sharma: बहुत अच्छा संकलन. वह दिन मुझे भी याद है और मैं उससमय छठा वर्ग में पढता था उस समय देश में सिखों के प्रती काफी आक्रोश पनपा था .इतना बड़ा दंगा होने के वावजुद भी उससमय कोई इसे गलत नहीं कहता था. पुलिस भी मुकदर्शक बनी थी.
 
Ssangeeta Tiwari कांग्रेस का राज था,
 
Rakesh Sharma: हां. उस समय तो गजब स्थिती थी जबकी मुझे उससमय राजनिती की समझ नहीं थी.
 
Sunil Srivastava: जब खबर आई ,उस समय हम कल्यान भाई ही थे सम्पादकीय विभाग में . प्रभात खबर का नोर्थ एडीशन का काम पूरा कर लछमन के दुकान पर नाश्ता करने जा रहे थे . 10 बजे सुबह का समय था ,गेट से ही लौट आये थे और बुलेटीन का काम शुरू कर दिया था . इन्दिरा से सम्बधसारे चित्र मेरे पास थे ,कल्यान भाई ने बहुत मेहनत किया था . सब के करफयू पास उनहोने ने ही मेरे साथ जाकर बनवाये थे . यही नहीं कुछ सरदार परवार को बचाया था . मैने एक पेज का लेख भी लिखा था .
 
Roy Tapan Bharati: सुनील भाई, याद आया आपके पास फोटो के अच्छे कलेक्शन थे…तब गूगल बाबा भी नहीं थे…आप, कल्याणजी और तमाम साथी खाने-पीने की परवाह किए बगैर देर रात तक अनगिनत संस्करण निकालते रहे, अखबारी जिंदगी का यह ऐतिहासिक पल था
 
Bipendra Kumar: लेकिन बुलेटिन निकलने के वक्त तक टेलीप्रिंटर पर मरने की खबर नहीं आई थी.बीबीसी ने पहले मरने की खबर दी. टेलिप्रिटर पर मरने की खबर देर से आयी थी.
 
Roy Tapan Bharati बिपेंद्र भाई, आपने सही लिखा। टेलीप्रिंटर और दूरदर्शन पर इंदिरा गांधी की हालत गंभीर बताई जा रही थी पर बीबीसी ने ही सबसे पहले मौत की खबर ब्रेक की थी।
 
Sunil Srivastava: हम और कल्यान भाई गेट पर पहुँचे तभी एक आदमी दौडता हुआ आया और कहा ,इन्दिरा जी को गोली से मार दिया , हम और कल्यान भाई टी पी देख कर ही निकले थे ,तब कोई खबर नहीं थी ,लेकिन खबर सुन कर वापस आ गये थे
 
Bipendra Kumar: जी, बुलेटिन छपते- छपते भारतीय एजेंसियों ने भी निधन की पुष्टि कर दी थी.
 
Urmila Bhatt: 31अक्टूबर 1984 हम सभी लोग छठ पूजा के सुबह वाली पूजा से लौटे ही थे। जब यह खबर मिली कि इंदिरा गाँधी की हत्या कर दी गई।
मुझे भी याद है ,तब मेरे बाबूजी की पोस्टिंग राँची में थी। और हमलोग छठ पूजा मनाने राँची से जमशेदपुर आए हुए थे। साथ में मेरी सहेली भी आई थी और हमलोगों को दूसरे दिन ही लौटना था। लेकिन इंदिरा गाँधी जी की मौत के बाद पूरे देश में अफरातफरी का माहौल बन गया था।
हमलोगों के मुहल्ले में जो सिक्ख परिवार रह रहे थे वे काफी दहशत में थे। जिस तरह का देश में साम्प्रदायिक माहौल बन गया था उससॆ उनका डरना लाजिमी था। जहाँ भी पगड़ी वाले सरदार दिखाई देते लोग उनको मारने के लिए दौड़ पड़ते।
राँची की स्थिति काफ़ी खराब हो गई थी।मेरी सहेली को भी इस वजह कुछ दिन रूकना पड़ा।जब माहौल शांत हुआ तब हमलोग राँची जा पाए। तब मैं इंटरमीडिएट में पढ़ रही थी। स्कूल कालेज भी काफी दिनों तक बंद रहा।सिक्खों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था।
 
Amit Sharma: Roy Tapan Bharati सर आपने 84 के दंगो का जीवंत वर्णन किया है कितना दुष्कर रहा होगा उस समय पत्रकारिता ये लेख से जाहिर हो रहा है…

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